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________________ (२०) खरतरशब्द न तो राजाओं का दिया हुआ विरुद है और न कोई गच्छ का नाम है । यदि वि० सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में राजादुर्लभ ने खरतरविरुद दिया होता तो करीब ३०० वर्षों तक यह महत्वपूर्ण विरुद गुप्त नहीं रहता। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छाचार्यों की यह मान्यता थी कि खरतरगच्छ के आदि पुरुष जिनदत्तसूरि ही थे। और यही उन्होंने शिलालेखों में लिखा है । यहां एक शिलालेख इस बारे में नीचे उद्धृत करते हैं। "सम्वत् १५३६ वर्षे फागुणसदि ५ भौमवासरे श्री उपकेशवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रि फलधराऽन्वये मं0 जूठल पुत्र मकालू भा० कर्मादे पु० नयणा भा० नामल दे ततोपुत्र मं० सीहा भार्यया चोपड़ा सा. सवा पुत्र स० जिनदत्त भा० लखाई पुत्र्या स्त्राविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संदू संही तया स्वपुण्यार्थ श्रीआदिदेव प्रथम पुत्ररत्न प्रथम चक्रवर्ति श्री भरतेश्वरस्य कायोत्सर्ग स्थितस्य प्रतिमाकारिता प्रतिष्ठिता खरतरगच्छमण्डन श्रीजिनदत्त सूरि श्रीजिनकुशल सरि संतानीय श्रीजिनचन्द्रसूरि पं. जिनेश्वरसूरि शाखायां श्रीजिनशेखरसूरि पट्टे श्रीजिनधर्मसूरि पट्टाऽलंकार श्रीपूज्य श्री जिनचन्द्रत्रिभिः" बा० पू० सं० लेखांक २४०, इस लेख से पाया जाता है कि सोलहवीं शताब्दी में खरतर गच्छ के आदि पुरुष जिनेश्वरसूरि नहीं, पर जिनदतसूरि ही माने जाते थे। खरतरों के पास इससे प्राचीन कोई भी प्रमाण
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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