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दत्त की खर प्रकृति के कारण खरतर कहने लगे । बस, वहां के श्रीसंघ ने जिनदत्त० को कहा अरे ये तो खरतर तो खरतर ही निकला । इस प्रकार कह कर संघ बाहर कर दिया । जिनदत्त० के मत का नाम चामुण्ड तो पहिले ही था। ऊंट पर सवार होने से लोगों ने इस मत का नाम औष्ट्रीक मत रख दिया और तीसरा खरतर नाम भी इस जिनदत्त० के कपाल में ही लिखा हुआ था कि लोगों ने जिनदत्त के मत को खरतर मत कहना शुरू कर दिया । यह इनकी खरतर प्रकृति का ही द्योतक था । जिनदत्तसूरि जैसे चामुंड और औष्ट्रीक नाम से खीजता एवं क्रोध करता था, वैसे ही खरतर नाम से भी सख्त नाराज होता था । कारण, यह नाम भी अपमानसूचक ही था । इस प्रकार इस मत के क्रमशः तीन नामों की सृष्टि पैदा हुई थी जिसमें खरतर नाम आज भी जीवित है ।
जैन धर्म में मूर्तिपूजा का निषेध सबसे पहले जिनदत्तसूरि ने ही किया है, बाद लौंकाशाह वगैरह ने तो उस जिनदत्तसूरि का अनुकरण ही किया है। हाँ जिनदत्तसूरि ने केवल स्त्रियों को जिनपूजा करने का निषेध किया तब लौंकाशाह ने स्त्री और पुरुष दोनों को जिन पूजा का निषेध कर दिया पर इनका मूल कारण तो जिनदत्तसूरि ही थे ।
यदि जिनदत्तसूरि की मान्यता थी कि तीर्थकर पुरुष थे उनको स्त्रियां छू नहीं सकती हैं पर वर्तमान चौबीस तीर्थकरों में उन्नीसवाँ मल्लिनाथ तीर्थकर तो स्त्री थे । खरतरियों के लिये मल्लिनाथ की मूर्ति पूजना रख देते तो बिचारी खरतरियां जिनपूजा से तो वंचित नहीं रहतीं, पर जिनदत्तसूरि में उस समय इतनी कल ही कहाँ