SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २४ ) शिलालेख में वि० सं० ११४७ में खरतरगच्छीय जिनशेखरसूरि ने मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाइ लिखा है। ___ उतर-यह लेख जाली है कारण ११४७ में न तो जिनशेखर सूरि बना था न खरतर शब्द का जन्म ही हुआ था न जिनशेखर सूरि खरतर ही था और न इस शिलालेख की मूर्ति ही जैसलमेर में है । इसकी आलोचना प्रथम भाग में कर दी गई है। खरतरों ने खरतर शब्द की प्राचीनता साबित करने को यह जाली लेख छपाया है, परन्तु इतनी अक्ल भी तो खरतरों में कहाँ है कि कल्पित लेख लिखने के पूर्व उसका समय तो मिला लेते, जैसे जिनेश्वरसरि के शास्त्रार्थ और खरतर विरुद का समय खरतरों ने वि० सं० १०२४ का लिख मारा है देखो 'खरतरमतोत्पत्ति दूसरा भाग' । तथा वर्द्धमानसूरि को १०८८ में आबू के मंदिर की प्रतिष्ठा कराना लिखमारा है इसी प्रकार आधुनिक खरतरों ने११४७ का जाली लेख छपा दिया है। इस प्रकार कल्पित लेख लिखना तो खर-तरों ने जन्मसिद्ध हक्क एवं अपना सिद्धान्त ही बना लिया है और कल्पित मत में कल्पित लेख लिखा जाय तो इसमें आश्चर्य करने की बात ही क्या है । खैर-जिनदतसूरि ने आचार्य बनने के बाद क्या किया जिनको भी मैं यहाँ दर्ज कर देता हूँ। जिनदत्तसूरि ने इस नूतन मत की वृद्धि के लिए एक मिथ्यात्वी चामुण्डा देवी की आराधना की। जिसके मठ में पूर्व जिनवल्लभ भी ठहरा था । पर देवी देवता भी तो इतने भोले नहीं होते हैं कि ऐसे शासन भंजकों का साथ दें अर्थात न सफलता मिली थी जिनवल्लभ को ओर न मिली जिनदत्त को । फिर भी जिनदत्त भद्रिक लोगों को कहता था कि देवी चामुण्डा मेरे बस
SR No.032637
Book TitleKhartar Matotpatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala
Publication Year1939
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy