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श्री राणकपुरतीर्थ ]
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द्वितीय कार्य-दानशाला बनवाई गई और तृतीक कार्यअपने लिये एक अति विशाल महालय बनवाया। वि० सं० १४६८ तक दानशाला, महालय और धर्मशाला बन चुके थे। .. प्राण-प्रतिष्ठोत्सव इस त्रैलोक्यदीपक धरणविहार नामक
राणकपुरतीर्थ की अंजनशलाका वि० सं० १४६८ फा० ऋ० ५ को और बिवस्थापना फा० कृ० १० को (राजस्थानी चैत्र कृ० १०) सुविहितपुरन्दर गच्छाधिराज, परमगुरु, श्री देवसुन्दरसूरिपट्टप्रभाकर, श्री बृदत्तपागच्छेश, श्री सोमसुन्दरसूरिके कर-कमलों से, जो श्री जग़च्चंद्रसूरि और श्री देवेन्द्रसूरि के वंश में थे, परमात सं० धरणाशाह ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सं० रत्नाशाह, भ्रातृजाया रत्नदेवी, भ्रातृज सं०. लाषा, सलषा, मना, सोना और सालिंग तथा. स्वपत्नि धारलदेवी एवं अपने पुत्र जाषा और जावड़ के सहित बड़ी धूम-धाम से करवाई।
आज भी उसकी पुण्य स्मृति में चै०.कृ० १० (गुजराती फा० कृ० १०) को प्रतिवर्ष मेला होता है और उसी दिन नेवध्वजा चढ़ाई जाती है। यह ध्वजा और पूजा सं. धरणाशाह के वंशजों द्वारा जो घाणेराव में रहते हैं चढ़ाई और उनकी ही ओर से .
जगडू कहीयई रोया 'संधार, . . . आपण में देस्या लोक आधार।.. .
अर्थात् वि० सं १४६५ में भारी दुष्काल पड़ा। सं० धरणाशाह को उसके भ्रातृज ने जगत्-प्रख्यात महादानी जगडूशाह श्रेष्ठि के समान दुष्काल से पीडित, क्षुधित दीन, गरीब जनता की सहायता करने की प्रार्थना की। भ्रातृज की प्रार्थना को मान देकर सं० धरणा ने त्रैलोक्यदीपकतीर्थ, धर्मशाला, स्वनिवास बनवाना प्रारम्भ किया तथा सत्रालय खुलवाया। ... ..