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________________ १४] [श्रेष्ठि संघवी धरणा अन्य पच्चास कुशल कार्यकगें एवं अगणित श्रमकरों को रख कर कार्य प्रारम्भ करवाया। जिनालय की नीवें अत्यन्त गहरी खुवाई और उनमें सर्वधातु का उपयोग करके विशाल एवं सुदृढ़ दिवारें उठवाई। चौरासी भूगृह बनवाये, जिनमें से पाँच अभी दिखाई देते हैं। दो पश्चिम द्वार की प्रतोली में हैं, एक उत्तर मेघनाथ-मंडप से लगती हुई भ्रमती में, एक अन्य देवकुलिका में और एक नैऋत्य कोण की शिखरबद्ध कुलिका के पीछे भ्रमती में हैं। शेष चतुष्क में छिपे हैं। जिनालय का चतुष्क सेवाड़ी ज्ञाति के प्रस्तरों से बना है, जो ४८००० वर्गफीट समानान्तर है। प्रतिमाओं को छोड़ कर शेष सर्वत्र सोनाणा प्रस्तर का उपयोग हुआ है। मूलनायक देवकुलिका के पश्चिमद्वार के बाहर उत्तर पक्ष की भित्ति में एक शिलापट पर वि० सं० १४६६ का लम्बा प्रशस्ति-लेख उत्कीर्णित है। इससे यह समझा जा सकता है कि यह मूलनायक देवकुलिका सं० १४६६ में बनकर ___ एक कथा ऐसी सुनी जाती है कि एक दिन सं० धरणाशाह ने घृत में पड़ी मक्षिका (माखी) को निकालकर जूते पर रख ली। यह किसी शिल्पी कार्यकर ने देख लिया। शिल्पियों ने विचार किया कि ऐसा कर्पण कैसे इतने बड़े विशाल जिनालय के निर्माण में सफल होगा। सं० धरणाशाह की उन्होंने परीक्षा लेनी चाही। जिनालय की जब नीवें खोदी जा रही थी, शिल्पियों ने सं० धरणाशाह से कहा कि नीवों को पाटने में सर्वधातुओं का उपयोग होगा, नहीं तो इतना बड़ा विशाल जिनालय का भार केवल प्रस्तर की निर्मित दिवारें नहीं सम्भाल पायंगी । सं० धरणाशाह ने अतुल मात्रा में सर्वधातुओं को तुरन्त ही एकत्रित करवाई। तब शिल्पियों को बड़ी लज्जा आई कि वह कर्पणता नहीं थी, परन्तु सार्थक बुद्धिमत्ता थी।
SR No.032636
Book TitleSanghvi Dharna aur Dharan Vihar Ranakpur Tirth ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Sangh Sabha
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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