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परिवर्तन-प्रकरण
०२१ कवि रहते थे । इसी कारण बहुतेरे द्वेषी मनुष्यों ने उड़ा दिया था कि ये महाराज स्वयं कवि न थे, बरन् लछिराम कवि से बनवाकर अपने नाम से कविता प्रकाशित करते थे। यह बात सर्वथा अशुद्ध थी और इससे ऐसी बातें उड़ानेवालों की चुद्रता प्रकट होती है। वास्तव में इनकी कविता के बराबर लछिराम का कोई भी ग्रंथ या छंद नहीं पहुँचता । ये महाराज शाकद्वीपी ब्राह्मण थे। अपने मरण-काल में ये अपने दौहित्र महामहोपाध्याय महाराजा सर प्रतापनारायणसिंह के० सी० आई०ई० उपनाम 'ददुश्रा साहब' को अपना उत्तराधिकारी नियत कर गए थे। कुछ समय बीता, जब महाराज ददुश्रा साहब ने 'रसकुसुमाकर' नामक एक भाषा-साहित्य का मनोरंजक सचिन संग्रह प्रकाशित किया था। इसमें द्विजदेवजी के बहुत से छंद हैं। इनके भतीजे भुवनेशजी ने लिखा है कि इन्होंने शृंगार-बत्तीसी और श्रृंगारलतिका-नामक दो ग्रंथ बनाए । इनका द्वितीय ग्रंथ हमारे पास वर्तमान है, जिसमें १०५ पृष्ठ हैं। ये महाराज व्रजभाषा में ही कविता करते थे। इनकी भाषा बड़ी ललित और कविता परममनोहर होती थी। इन्होंने अनुप्रास का अच्छा प्रयोग किया है । इनका षट्ऋतु बहुत ही बढ़िया बना है, और शेष ग्रंथ में श्रृंगार-रस के स्फुट छंद हैं। इनकी कविता में बहुत-से परमोत्तम छंद हैं, जिनके बराबर बड़े-बड़े कवियों के अतिरिक्त साधारण कवियों के छंद नहीं पहुँचते। इनके शेष छंद भी बुरे नहीं हैं। हम इनको पद्माकर की श्रेणी में रखते हैं। उदाहरण लीजिएसोंधे समीरन को सरदार, मलिंदन को मनसा फलदायक ; किंसुक-जालन को कलपद्रुम, मानिनी बालन हूँ को मनायक । कंत इकस अनंत कलीन को, दीनन के मन को सुखदायक ; साँचो मनोभव राज को साज, सु श्रावत आजु इतै ऋतुनायक ।