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________________ परिवर्तन-प्रकरण १०४ दूसरी भाषा का ढूँढना कठिन है, और इस अंग की प्रौढ़ता हमारी भाषा में प्रायः एकदम अद्वितीय और अभूतपूर्व है, तो भी मानना ही पड़ेगा कि कम-से-कम उत्तरालंकृत काल में इस अंग की पूर्ति में आवश्यकता से कहीं अधिक श्रम कर डाला गया । इसके अतिरिक्त उस समय कवियों का झुकाव शृंगार-रस की ओर इतना अधिक रहा कि उनमें से अधिकांश का रुझोन दूसरे विषयों पर न हो सका । हमारी समझ में पूर्वालंकृत काल तक हिंदी को जितने आभूषण पिन्हाए जा चुके थे, उन पर यदि हमारे कविजन संतोष कर लेते, और शृंगार-रस को छोड़ उपकारी बातों का उचित आदर करते, तो भाजदिन हमें अपने भाषा-भंडार में नूतन विषयों की न्यूनता पर शोक न प्रकट करना पड़ता । स्मरण रखना चाहिए कि उत्तरालंकृत काल में, जब कि हमारे यहाँ लोग भाषा को बाह्याडंबरों से ही सुसज्जित करने में विशेष रूप से बद्धपरिकर थे । अन्य देशी भाषाएँ और ही छटा दिखलाने लगी थीं । बंगला में भी हमारे पूर्वालंकृत काल एवं उत्तरा.. लंकृत काल के विशेषांश में भाषा अलंकृत रही, परंतु वहाँ संवत् १८७५ में ही श्रीरामपुर के पादरियों द्वारा एक समाचार-पत्र निकला और इसी समय से गद्य का प्रचार बढ़ने लगा। संवत् १८८५ के लगभग मृत्युंजय-नामक लेखक ने बँगला का प्रबोधचंद्रिका-नामक प्रथम, गद्य-ग्रंथ लिखा । इसी कवि ने पुरुष-परीक्षा-नामक एक द्वितीय गद्यग्रंथ रचा । इसी समय ईश्वरचंद्र गुप्त ने संवाद-प्रभाकर-नामक एक उत्कृष्ट पत्र निकाला, और राजा राममोहन राय ने सुधावर्षिणी. लेखनी से संसार को पवित्र किया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर और अक्षयकुमारदत्त बंगाली गद्य के मुख्य उनायक हो गए हैं। इनका रचनाकाल १११० के लगभग था। इन्होंने बहुत ही उत्कृष्ट गद्यग्रंथ रचे, और इनके समय से प्रायः सभी विषयों में बँगला भाषा ने बहुत अच्छी उन्नति की । इसी समय के बंकिमचंद्र चटर्जी, मधुसूदन
SR No.032634
Book TitleMishrabandhu Vinod Athva Hindi Sahitya ka Itihas tatha Kavi Kirtan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshbihari Mishra
PublisherGanga Pustakmala Karyalay
Publication Year1929
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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