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मिश्र बंधु विनोद
पीछे आने लगा, पर किसी ने उसे जान नहीं पाया। शरीर से आप स्थूल थे, सो अस्वस्थता में भी अच्छे देख पड़ते थे । संवत् १६६३ में खाँसी शांत न होते देखकर हम लोगों ने इन्हें बहुत समझाया कि ये भोजन में पूरा बराव करें और दवा जमकर की जावे । उसी समय से श्रापने दवा पर अच्छा ध्यान दिया और पथ्य का भी पूरा विचार रक्खा, परंतु लाख-लाख दवा करने पर भी ईश्वरेच्छा के आगे कोई वश न चला और प्रायः एक वर्ष और रुग्ण रहकर संवत् १६६४ में २५ दिसंबर सन् १९०७ ई० को इनका शरीर-पात हो गया ।
विशालजी की प्रकृति बड़ी शांत थी, और इन्हें क्रोध आते हमने कभी नहीं देखा । आपसे मज़ाक़ में कोई पेश नहीं पाता था। बड़ेबड़े उस्ताद जानिए आपसे पराजित हो गए। आपके साथ बैठने में चित्त सदैव प्रसन्न रहता था, चाहे जितना बड़ा दुःख ही क्यों न हो । आपमें सभाचातुरी की मात्रा बहुत थी और हास्य रस के तो आप आचार्य ही थे । हमारी कविता ये सदैव बड़े प्रेम से सुनते और हमें अपनी सुनाते थे। दूसरे की रचना श्राप इतनी पसंद करते थे कि यद्यपि लवकुशचरित्र एक परम साधारण ग्रंथ था, तथापि उसकी प्रशंसा में आपने एक छोटा-मोटा प्रायः १५० छंदों का ग्रंथ ही रच डाला । होली से संबंध रखनेवाले अश्लील विषयों पर भी आपने बहुत रचना की है। होलिका भरण- नामक एक अलंकारग्रंथ आपने ऐसा रचा, जिसके प्रत्येक दोहे में अलंकार अश्लील वर्णन में निकाला । उसमें सब अलंकार आ गए हैं । इसी प्रकार नायिकाभेद के भी बहुत-से छंद इसी विषय में रचे गए । ये छंद सवैया एवं घनाक्षरी हैं और बहुत उत्तम बने हैं, परंतु कहीं पढ़ने योग्य नहीं हैं। आपने दोहा - चौपाइयों में एक श्रवणोपाख्यान बनाया था, परंतु वह गुम हो गया । पाप-विमोचन नामक ८४ सवैया कवित्तों का
पने एक शंकर-स्तुति का ग्रंथ रचा था, जो अच्छा है । अपने मित्रों