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मिश्रबंधु-विनोद जगत-सचाई-सार तथा पद्यसंग्रह-नामक इनकी नौ कविता-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इस सरफ़ कुछ और छोटे-छोटे ग्रंथ आपने रचे हैं । पाठकजी ने खड़ी बोली तथा व्रजभाषा दोनों की कविता परम विशद की है, और इनका श्रम सर्वतोभावेन प्रशंसनीय है। गद्य के भी लेख इनके अच्छे होते हैं। इन्होंने अपनी रचना में पदमैत्री की प्रधानता रक्खा है, और कुछ चित्रकाव्य भी किया है। आपने प्राचीन श्रृंगार-रस-वर्णन की प्रणाली छोड़कर साधारण कामकाजी बातों का वर्णन अधिक किया है । उद्योग, परिश्रम, वाणिज्थ आदि की प्रशंसा इनकी रचना में बहुत है । सामाजिक सुधारों पर भी इनका ध्यान है । इनकी रचना में अनुवादों की संख्या स्वतंत्र-रचना से बहुत अधिक है, पर इनके अनुवाद स्वतंत्र-रचनाओं का-सा स्वाद देते हैं। श्राप लखनऊ के साहित्य सम्मेलन में प्रधान रह चुके हैं।
उदाहरणए धन स्यामता तो मैं घनी तन बिज्जु छटा को पितंबर राजै ; दादुर-मोर-पपीहा-मई अलबेली मनोहर बाँसुरी बाजै । सौ बिधि सों नवला अबला उर पास बिलास हुलास उपाजै ; जो कछु स्याम कियो ब्रजमंडल सो सब तू भुवमंडल साजै ॥१॥
उस कारीगर ने कैसा यह सुंदर चित्र बनाया है; कहीं पै जलमै कहीं रेतमै कहीं धूप कहिं छाया है।
नव जोबन के सुधा सलिल में क्या बिष-बिंदु मिलाया है ; अपनी सौख्य बाटिका में क्या कंटक-वृक्ष लगाया है ॥२॥ प्रानपियारे की गुन-गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ; गाते-गाते नहीं चुकै वह चाहै मैं ही चुक जाऊँ ॥३॥