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मिश्रबंधु-विनोद अधिक रुचिकर हुई । गद्य में इन्होंने खड़ी बोली का प्रयोग किया है, और वह सर्वथा अादरणीय है । गद्य में हम लाला साहब को उत्तम लेखक समझते हैं । दोहा-चौपाइयों में इन्होंने अवध की भाषा का प्राधान्य रक्खा है, परंतु घनाक्षरी श्रादि में अवधी और व्रजभाषा का मिश्रण कर दिया है । इन्होंने पद्य में खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया। इन महाशय ने गद्य के भी ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें सावित्री का वर्णन हमारे पास मौजूद है । आपने और भी बहुतसे छोटे-छोटे ग्रंथ बनाए हैं, जिनको यहाँ लिखने की कोई श्रावश्यकता नहीं है, इधर इन्होंने कलकत्ता-विश्वविद्यालय के लिये हिंदी कविता का एक विशाल और उत्कृष्ट संग्रह तैयार किया है। इनकी गणना हम मधुसूदनदास की श्रेणी में करते हैं । उदाहरणार्थ इनके कुछ छंद नीचे लिखे जाते हैंमहाकाल जो बसत महेसा ; यह रहि तासु समीप नरेसा । पाख अँधेरेहु करत बिहारा , शुक्लपक्ष सुख लहत अपारा ॥ १ ॥ राखत सँयोग पास प्रान सों पियारि आजु,
करहुँ मनोरथ अनेक जिय धीर धरि । आपन सोहाग मम जीवन अधार जानि,
होहु ना निरास कछु चित्तहि उदास करि । यहि जग कौन सुख भोगत सदैव भूप,
काहि पुनि दुःख एक रहत जनम भरि ; ऊपर उठावत गिरावत धरनि पर,
चक्र-कोर-सरिस नचावत सबहिं हरि ॥२॥ सुनत अप्सरन गीत मनोहर ; भए समाधि भंग नहिं शंकर ; जिन-निज चित्त-वृत्ति धरि साधी । सके तोरि को तासु समाधी ॥ ३ ॥
बन नगत डादा प्रबल चहुँ दिसि भूमि सब लखियत जरी; लू चनत इत-उत उड़त सूखे पात रूखन सन झरी।