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मिश्रबंधु-विनोद
सुनि बोल सुहावन तेरे अटा यह टेक हिये मैं धरौं पै धरौं ; मढ़ि कंचन चोंच पखौवन मैं मुकताहल गदि भरौं पै भरौं । सुख-पीजर पालि पढ़ाय घने गुन-ौगुन कोटि हरौं पै हरौं ; बिछुरे हरि मोहिं महेश मिले तोहि काग ते हंस करौं पै करौं ॥१॥
(२३६५ ) प्रतापनारायण मिश्र इनके पिता का नाम संकटाप्रसाद था । ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण बैजेगाँव, जिला कानपूर के मिश्र थे । इनका जन्म संवत् १९१३ आश्विन शुक्ल १ को हुआ। इन्होंने पहले अपने पिता से कुछ संस्कृत पढ़ी, फिर स्कूल में नागरी तथा अँगरेज़ी की शिक्षा पाई और उसी के साथ-साथ उर्दू और फारसी का भी अभ्यास किया । इनका मन पढ़ने में नहीं लगता था, अतः ये कोई भाषा भी अच्छी तरह नहीं पढ़ सके। हिंदी पर इनका विशेष प्रेम था और जातीयता भी इनमें कूट-कूटकर भरी थी। ये गो-भक्त भी बड़े थे, और हरिश्चंद्रजी को पूज्य दृष्टि से देखते थे। काँगरेस के ये बड़े पक्षपाती थे। इनका मत यह था कि-चहहु जु साँचौ निज कल्यान ; सौ सब मिलि भारतसंतान । जपो निरंतर एक जबान ; हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान । काव्य करना इन्होंने ललित त्रिवेदी मल्लावाँ-निवासी से सीखा था।
ये महाशय एक उत्तम कवि और बड़े ही जिंदादिल मनुष्य थे । प्रतिभा इनमें बहुत ही विलक्षण थी । इनका स्वर्गवास संवत् १९५१ में, ३८ वर्ष की अवस्था में, हो गया । ये महाशय मज़ाक की कविता बहुत चटकीली करते थे, जो कभी-कभी ग्रामीण भाषा में भी होती थी। 'अरे बुढ़ापा तोहरे मारे अब तौ हम नकन्याय गयन' श्रादि इनके छंद बड़े मनोहर हैं । ये कानपुर में रहते थे और इन्होंने ब्राह्मण-नामक एक पत्र भी सन् १८८३ से निकाला था, जो दस वर्ष तक चलता रहा । इनके रचित तथा अनुवादित निम्नलिखित ग्रंथ हैं-पर कोई बृहत् ग्रंथ बनाने के पहले ही ये