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परिवर्तन-प्रकरण
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जानि परैन कला कछु श्राजु कि काहे सखी श्रजया यक लाई पोसे मराल कहौ केहि कारन एरी भुजंगिनि क्यों पोसवाई । इनके छंद देखने से अनुमान होता है कि इन्होंने एक नखशिख भी बनाया होगा ।
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( १८०३ ) सेवक
इनका जन्म संवत् १८७२ वि० में हुआ था और छाछठ वर्ष की अवस्था भोगकर संवत् ११३८ में काशीपुरी में इन्होंने स्वर्गवास पाया । ये महाशय असनी के ब्रह्मभट्ट थे । इनके पूर्व पुरुष देवकीनंदन सरयूपारीण पयासी के मिश्र थे, परंतु उन्होंने राजा मँझौली के यहाँ बरात में भाटों की भाँति छंद पढ़े और उनका पुरस्कार भी लिया, अतः उनके स्वजनों ने उन्हें जातिच्युत कर दिया । इस पर विवश होकर उन्होंने सनी के भाट नरहरि कवि की लड़की के साथ अपना विवाह करके असनी में ही रहना स्वीकार किया । उस समय से वे और उनके वंशज सचमुच भाट हो गए। उन्हीं के वंश में ऋषिनाथ कवि परम प्रसिद्ध हुए । इन्हीं महाशय के पुत्र सुप्रसिद्ध ठाकुर कवि हुए । ठाकुर कवि काशी के बाबू देवकीनंदन के यहाँ रहते थे । ठाकुर ने इन्हीं के नाम पर सतसई का तिलक बनाया था । ठाकुर के पुत्र धनीराम हुए, जो देवकीनंदन के पुत्र जानकीप्रसाद के कवि थे और जिन्होंने उन्हीं के यहाँ रामचंद्रिका तथा रामायण के तिलक एवं रामाश्वमेध तथा काव्यप्रकाश के उल्था बनाए । इन्होंने बहुत-से स्फुट छंद भी रचे । इनके शंकर, सेवकराम, शिवगोपाल और शिवगोविंदद-नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए । शंकरजी भी अच्छे कवि थे । सेवक के पुत्र मान और उनके काशीनाथ हुए, जो आजकल असनी में वैद्यक करते हैं । शिवगोपाल के पुत्र मुरलीधर और पौत्र देवदत्त हुए । शिवगोविंद के श्रीकृष्ण, नागेश्वर और मूलचंद नामक तीन पुत्र हुए। इन्हीं श्रीकृष्ण ने सेवक- कृत वाग्विलास और ग्रंथ में उनका