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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 80 सुख के साध्य की उपलब्धि के विरोध में ही जाती है, ताकि बाह्य वस्तुओं के उस सामान्य सम्बंध को, जिस पर साधारण सुखों की रुचि निर्भर रहती है, समाप्त किया जा सके, इसीलिए हम पाते हैं कि सिरेनिक सम्प्रदाय के परवर्ती विचारक स्वतः ही इस मौलिक धारणा में परिवर्तन करने के लिए बाध्य हुए। थिजोडोरस ने शुभ को केवल सुख से भिन्न प्रज्ञा पर आधारित प्रसन्नता के रूप में परिभाषित किया। जबकि शिअस ने दावा किया कि आनंद अप्राप्य है और बुद्धि (प्रज्ञा) का मुख्य कार्य सभी सुखद वस्तुओं के प्रति उदासीन भाव रखकर दुःखरहित जीवन जीना है, किंतु इन परिवर्तनों के कारण इस दर्शन के प्रति जन साधारण की सुखान्वेषी प्रवृत्तियों का समर्थन था, वह इसने भी दिया। वस्तुतः, हेगेशिअस के साथ सुख का साध्य सुख के विरोध में बदल गया। किसी को यह जानकर आश्चर्य नहीं होगा कि ये सुखवादियों के कथन आत्म- हत्या के प्रेरक होने से वर्जित कर दिए गए थे। यह स्पष्ट है कि यदि किसी व्यापक एवं ठोस आधार पर दार्शनिक सुखवाद की स्थापना की जाती है, तो वह दार्शनिक सुखवाद अपने शुभ के प्रत्यय के सम्बंध में किसी न किसी रूप में, साधारण व्यक्ति स्वाभाविक रूप से क्या चाहता है और दर्शन यथासम्भव रूप से क्या दे सकता है, इसका समन्वय ही होगा। यह यथार्थ और आदर्श का समन्वय इपीक्यूरस के द्वारा कुछ अधिक कठोरता के साथ कार्यान्वित किया गया। इपीक्यूरस के दर्शन ने अपने दोषों के साथ भी समय की परिभाषा में लम्बे युग तक जीवित रहकर अपनी विशिष्ट शक्ति का परिचय दिया है। उसका दर्शन छः शताब्दियों की सुदीर्घ कालावधि तक अपनी शिष्य परम्परा की सम्पूर्ण श्रद्धा का केंद्र बना रहा। इपीक्यूरस (341-270 ई. पूर्व ) इपीक्यूरस परिस्टिपस के समान ही स्पष्टतया यह मानते है कि सुख ही एक मात्र परम शुभ है और दुःख ही एक मात्र अशुभ है। अपने दुःखद परिणामों को उत्पन्न करने वाले सुख के अतिरिक्त कोई भी सुख अस्वीकृत करने योग्य नहीं है और सिवाय उन दुःखों के, जो कि अधिक सुख के साधन हैं। कोई भी दुःख वरण किए जाने योग्य नहीं है। समस्त नियमों एवं रीति-रिवाजों का पालन उनके उल्लंघन के साथ जुड़े हुए दण्ड पर पूरी तरह निर्भर करता है । संक्षेप में सभी प्रकार का सदाचरण और चिंतन कार्य, यदि वह कर्ता के जीवन में आनंद की अभिवृद्धि नहीं करता है तो निरर्थक और अनुपयोगी है। इपीक्यूरस यह बात भी स्पष्ट कर देते हैं कि सुख से उनका तात्पर्य वही है, जो कि एक साधारण व्यक्ति का है। यदि सुख में से क्षुधाओं एवं इंद्रियों की संतुष्टि
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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