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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 71 आधार पर किया गया है। वे यह मानते हैं कि जिसे हम कहते हैं, वह भी उस बौद्धिक आत्मा की ही रूग्ण एवं विकृत अवस्था है, जो श्रेय क्या है और अश्रेय क्या है? इसके सम्बंध में गलत निर्णय देती है। इन्हीं आवेगात्मक भ्रांतियों से एक सच्चे प्राज्ञ मनुष्य को मुक्त होना चाहिए। वस्तुतः प्राज्ञ व्यक्ति भौतिक क्षुधाओं के प्रलोभन के प्रति सजग होगा, किंतु वह उन्हें वास्तविक शुभ का विषय मानने की गलती नहीं करेगा और इसलिए वह उन वस्तुओं की उपलब्धि की आशा अथवा उनकी अनुपलब्धि के भय से ग्रस्त नहीं होगा, क्योंकि इन आवेगों में यह भाव निहित है कि वे ही शुभ हैं। इसी प्रकार यद्यपि वह दूसरे मनुष्यों के समान ही दैहिक दुःखों से युक्त हो सकता है, किंतु वे शारीरिक दुःख उसे मानसिक दुःख अथवा पीड़ा नहीं देंगे। बड़ी से बड़ी वेदना भी उसकी इस स्पष्ट मान्यता को विचलित नहीं कर सकती है कि वे शारीरिक दुःख सच्ची बौद्धिक आत्मा से पृथक् हैं। ये सभी विषय, जो कि सामान्यतया मनुष्य की आकांक्षा, भय एवं हर्ष-विषाद के भाव को उत्तेजित करते हैं, वे एक मनीषी में इन अवस्थाओं को उत्पन्न नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह उन विषयों को वस्तुतः शुभ या अशुभ नहीं मानता है, इसलिए हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि मनीषी पूर्णतया संवेगों से रहित व्यक्ति हैं, उनमें भी वास्तविक शुभ की उपलब्धि की समुचित गौरव भावना होती है तथा बुद्धि जिसे वरेण्य अथवा हेय बताती है, उसके प्रति आकर्षण (राग) अथवा विकर्षण (द्वेष) होता है। किंतु वे वासनाएं, जिनके प्रति साधारण मनुष्य के मन में लगाव होता है उन्हें प्रभावित नहीं करती है। किंतु ऐसे वासना से रहित, शांत एवं निरावेगी मनीषी सांसारिक मनुष्यों में कठिनता से ही पाए जाते हैं, इस तथ्य को परवर्ती स्टोइक विचारक भी स्वीकार करते थे। उन्होंने यह माना था कि प्राचीन युग के एक या दो महान् नैतिक व्यक्तियों ने इस आदर्श को उपलब्ध किया था, किंतु इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं किउन महान् पुरुषों के अतिरिक्त भी सभी दार्शनिक उस आदर्श की दिशा में प्रगति की ओर उन्मुख हैं। यद्यपि उनकी यह स्वीकृति प्रज्ञा के व्यापक दावों के प्रति उनकी पूर्ण श्रद्धा की धारणा को समाप्त नहीं करती है। उस प्रज्ञा में निहित उसके विशिष्ट मूल्य की आस्था ही उन लोगों के लिए दृढ़ निष्ठा का आधार है, जिन्होंने उसे उपलब्ध किया है। इस आस्था के अभाव में कोई भी कार्य विवेकयुक्त या सद्गुणात्मक नहीं हो सकता है। ज्ञान का अभाव ही पाप है और उचित और अनुचित का अंतर निरपेक्ष है। यह मात्रा का अंतर नहीं है। सभी पाप समान ही है, यदि कोई छोटी सी आज्ञा का भी उल्लंघन करता है, तो वह समग्र नियम को तोड़ने का
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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