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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 67 एक खतरनाक बहाना प्रतीत होता है और वे उसका खण्डन और प्रतिषेध करने की भी बहुत इच्छा भी रखते हैं, किंतु उनके मनोवैज्ञानिक सिद्धांत में नैतिक बुराई (पाप) के ऐच्छिक चयन के लिए कोई स्थान नहीं है। यह ईसाई नैतिक चेतना में बुरे संकल्प का प्राथमिक और प्रमुख तत्त्व है और इस प्रकार वे दुराचारी व्यक्ति पर उसके कार्य के प्रति समग्र एवं अंतिम उत्तरदायित्व डालने में अनिवार्य रूप से असफल हो जाती हैं। मन की वे अवस्थाएं, जिन्हें वे दुराचरण का अव्यवहित पूर्ववर्ती (कारण) मानते हैं, दो हैं?' पराजित बौद्धिक निर्णय पर अबौद्धिक आवेगों का वर्चस्व और बिना विचार किए ही किसी कार्य हेतु तत्पर हो जाना और 2.शुभ प्रतीत होने वाले अशुभ का गलत चयन। दोनों ही स्थितियों का जो विवरण इन दोनों विचारकों ने प्रस्तुत किया है, उससे तो कार्य पूर्व निर्धारित या नियत ही प्रतीत होता है। जैसा कि प्लेटो ने स्पष्ट कहा है कि काल की दृष्टि से परिवेश बुरे संकल्प का पूर्ववर्ती होता है और इस प्रकार बुरा कार्य अपने कारण से नियत होता है। यद्यपि यह सत्य है कि दुराचरण के अंतिम कारण की नियतता का निरसन करने के लिए प्लेटो ने स्वयं अथक प्रयास किए हैं। रिपब्लिक के अंत की एक कथा में तथा लाज में उसने दृष्टिकोण की अर्धकाल्पनिक एवं अर्द्धलोकप्रिय अभिव्यक्तियों में वह यह स्वीकार करता है कि प्रत्येक आत्मा अपने दुराचरण के लिए पूर्ण उत्तरदायी है। किंतु अपने मानवीय कार्यों के वैज्ञानिक विश्लेषण में प्लेटो संकल्पों को सदैव ही या तोशुभ की प्रत्याशा की बुद्धि से अथवा आवेगों अथवा क्षधाओं की बुद्धि के प्रति अंघ या अस्त व्यस्त विरोध से निर्धारित मानता है। आवेगों (वासनाओं) से निर्धारित होने की अवस्था में बुद्धि के अपूर्ण नियंत्रण की सम्पूर्ण व्याख्या विकृत आत्मा की मूलभूत रचना है और जो उन बाह्य प्रभावों के द्वारा होगी, जिन्होंने उसके विकास को प्रभावित किया है। इसी प्रकार दुराचारी व्यक्ति के कार्यों की जिस संकल्प स्वतंत्रता' का अरस्तू विवेचन करता है वह भी उसके निर्मित चरित्र और उपस्थित बाह्य प्रभावों के द्वारा उस क्षण में होने वाले निर्धारण से मुक्त नहीं है और इसलिए आधुनिक दार्शनिक अर्थ में उसे वस्तुतः स्वतंत्र कर्तृत्व नहीं कहा जा सकता है। अरस्तू के अनुसार दुराचारी व्यक्ति जहां तक कि वह किसी संकल्पित उद्देश्य से कार्य करता है, वह उसे ही चुनेगा, जो उस समय उसे शुभ प्रतीत होगा और यह प्रतीति चाहे कितनी भ्रांत भी क्यों न हो? तथापि उस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता है। जैसा कि अरस्तू का कहना है, हम यह मान सकते हैं कि यह उसका पूर्व का अशुभाचरण ही है, जिसके कारण अशुभ भी उसे शुभ प्रतीत होता है, किंतु यह तर्क केवल तभी
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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