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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 65 की कमी है। सच्ची मित्रता का लक्षण दूसरे की भलाई (हित) की कामना उनकी भलाई के लिए ही करना है, इसलिए सच्ची मित्रता केवल भले लोगों में ही हो सकती है। मित्रता उनके आनंद को सहानुभूति के माध्यम से ऐसी जीवन की चेतना का विकास करते हुए पूर्ण बनाती है, जो कि स्वतः शुभ है। विशेष रूप से यह उन्हें अपने सद्गुणों की अपेक्षा भी वैचारिक आनंद देती है। वे यह सोचकर आनंद प्राप्त करते हैं कि योग्यतम उपलब्धियां उनकी स्वयं की है, यद्यपि अरस्तू मित्रता के आधार के इस आदर्श के विवेचन को मानवीय मैत्री की स्वाभाविक अवस्थाओं की व्यावहारिक विवेचना के द्वारा अधिक पूर्ण बनाता है।24 उदाहरणार्थ, पैतृक सम्बंध में मित्रता बहुत कुछ शारीरिक एकता की भावना से उत्पन्न होती है। बालक के प्रति वात्सल्य भाव वस्तुतः एक प्रकार का विकसित आत्म प्रेम ही है। नैतिक अच्छाइयों (प्रकर्षों) के विवेचन के बाद अरस्तू बुद्धि का विश्लेषण करते हैं। इस विवेचन में मुख्य प्रश्न बुद्धि के दो प्रकारों अर्थात् विमर्शात्मक प्रज्ञा और व्यावहारिक प्रज्ञा, जिन्हें प्लेटो ने एक ही प्रत्यय में मिश्रित किया है, के पारस्परिक सम्बंध का निर्धारण करना है। जैसा कि हमने देखा, अरस्तू की मान्यता यह है कि विमर्शात्मक प्रज्ञा नैतिक प्रश्नों का समाधान करने में कोई मार्गदर्शन नहीं देती है, तथापि यह उसी अर्थ में व्यावहारिक मानी जा सकती है, जहां तक कि इसका अभ्यास मानवीय क्रियाओं के सर्वोच्च लक्षण (अर्थात् बौद्धिकता) के रूप में होता है। यह मानवीय शुभ को परिभाषित तो नहीं करती है, किंतु यह उस शुभ का सर्वोत्तम अंग है। दूसरी ओर, जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है, यदि हम व्यावहारिक बुद्धि को नैतिक अच्छाइयों से परिपूर्ण मानें तो वह उनमें अंतर्निहित है। क्योंकि किसी भी विशेष स्थिति में भावनाओं एवं कार्य की उस समुचित सीमा, जिसमें पूर्ण सद्गुण निहित है, का निर्धारण व्यावहारिक बुद्धि के द्वारा होता है और इसे नैतिक अच्छाई से अलग अस्तित्ववान नहीं माना जा सकता है। हम किसी व्यक्ति को केवल उसके बुद्धि-चातुर्य, जिसे एक दुराचारी व्यक्ति भी प्रदर्शित कर सकता है, के आधार प्राज्ञ (समझदार) व्यक्ति नहीं कहते हैं। वह व्यक्ति जिसे हम प्राज्ञ (समझदार) व्यक्ति मानते हैं उसे केवल साध्य के लिए साधनों को चयन करने में ही चतुर नहीं होना चाहिए तथापि अरस्तू की दृष्टि में जिससे उचित कार्य का निर्धारण होता है, उस व्यावहारिक न्याय के सामान्य स्वरूप का निर्माण करना कठिन है। वस्तुतः अरस्तू के लिए भी इस मुद्दे को सरलतापूर्वक स्पष्ट कर देना तब तक सम्भव नहीं था, जब तक कि वह जन
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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