SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 51 कि सुकरात भी 'शुभ', जिसके सम्बंध में सिनिक्स और सिरेनेक्स में विवाद रहा हुआ है और जिसका प्लेटो अपने फिलेक्स नामक संवाद में सिनिक्स और सिरेनेक्स के साथ विचार विनिमय करता है, यह कोई अधिक 'यथार्थ' तथ्य ही होगा। वस्तुतः वह उस संवेदनात्मक जगत् का ही कोई तथ्य होगा जिसमें मनुष्य वास्तविक जीवन जीता है। इस यथार्थ मानवीय शुभ की समुचित परिभाषा क्या होगी? क्या यह प्रज्ञा या सद्गुण की साधना में निहित है ? अथवा क्या सुख उस शुभ का एक घटक है और यदि वह सुख उस शुभ का एक अंग है, तो उसका महत्व क्या है? रूप इन प्रश्नों पर प्लेटो के विचारों में हमें बहुत से उतार चढ़ाव देखने को मिल हैं। प्रोटागोरस नामक संवाद में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करने के पश्चात् कि सुख शुभ है, वह एक दूसरी अति की ओर जाता है तथा फीडो और गोरगिजस नामक संवादों में इस बात को मानने से इंकार कर देता है कि सुख किसी भी रूप में शुभ है मात्र इतना ही नहीं, स्पष्ट रूप से तो वह सुख को ऐसा वास्तविक सारभूत शुभ ही नहीं मानता है, जिसकी एक दार्शनिक खोज करता है, वरन् सुख को वह एक भौतिक, क्षणिक एवं एक प्रक्रिया मात्र मानता है। वे अनुभूतियां, जिन्हें अक्सर सुख मान लिया जाता है वे दुःख के साथ जुड़ी हुई होती है, जबकि शुभ कभी भी अशुभ (बुराई) के साथ नहीं रह सकता है। सुखद अनुभूतियां केवल दुःखद आकांक्षाओं की पूर्ति है और उनके हटा देने पर समाप्त हो जाती है, जहां तक सामान्य बुद्धि सम्यक् रूप से कुछ सुखों को शुभ के में स्वीकार करती है, यह उनकी किसी अग्रिम शुभ उत्पादन क्षमता आधार पर ही माना गया है। प्लेटो के लिए यह दृष्टिकोण सुकरात के परम्परा में रहते हुए भी उस परम्परा के प्रति विद्रोह था। सुख को सारभूत और निरपेक्ष शुभ नहीं मानना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उसे यथार्थ मानव जीवन के वास्तविक कल्याण में सम्मिलित नहीं किया जाए। अंततोगत्वा वह केवल स्थूल एवं पाशविक सुख ही था, जो आकांक्षा के दुःख के साथ स्थायी रूप से जुड़ा हुआ है। 'रिपब्लिक' में प्लेटो दार्शनिक या सद्गुणी जीवन की आंतरिक सर्वोच्चता के प्रश्न पर सुख के प्रमापक के आधार पर विचार करने से कोई विरोध नहीं है, ऐसा मानता है उनका तर्क यह है कि केवल अच्छा दार्शनिक व्यक्ति ही सच्चे सुख का उपभोग करता है। जबकि संवेदनशील व्यक्ति दुःखद आकांक्षाओं और उन तटस्थ दुःखरहित अवस्थाओं के बीच झूलते हुए अपना जीवन व्यतीत करता है, जिन्हें वास्तविक सुख मान लेता है। लाज में इससे भी अधिक स्पष्टता के साथ यह कहा गया है कि जब हम देवताओं के
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy