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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/46 दृष्टिकोण कैसे प्राप्त हो गया? प्लेटो का कहना है कि आंशिक रूप से यह प्रकृति का वरदान होता है या ईश्वरीय कृपा से प्राप्त होता है, यद्यपि इसके पूर्ण विकास के लिए परम्परा और अभ्यास की आवश्यकता है, इसलिए मानव जीवन में उच्च प्रकार के नागरिक सद्गुणों के प्रशिक्षण एवं अनुशासन का सर्वाधिक महत्व है। यद्यपि सद्गुण सम्बंधी इस प्रशिक्षण में शारीरिक एवं सौंदर्यपरक कलाओं की शिक्षा का सहयोग भी अपेक्षित होगा, किंतु नैतिक संस्कृति की शिक्षा केवल उन्हीं लोगों के लिए आवश्यक नहीं है, जो कि सद्गुण के जन साधारण के प्रमापक से ऊपर नहीं उठ सकते हैं, अपितु उन लोगों के लिए भी उतनी ही अथवा उससे अधिक आवश्यक है, जो कि दार्शनिक ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। वस्तुतः प्लेटो की यह स्पष्ट मान्यता है कि आत्मा में ‘प्रज्ञा' को छोड़कर सभी सद्गुणों का विकास आदत एवं अभ्यास के द्वारा होता है। उन्हें अपना यह सिद्धांत सुकरात के उस सिद्धांत का विरोधी प्रतीत होता है, जिसके अनुसार शुभ का ज्ञान अपने साथ सभी सद्गुणों को ले आता है। उनका कहना है कि साधना से रहित आत्मा को ज्ञान भी प्राप्त नहीं होता है। ज्ञान के लिए साधना अपेक्षित है, किंतु यह साधना मात्र बौद्धिक प्रशिक्षण नहीं है, अपितु इससे बहुत कुछ अधिक है। प्रश्न यह है कि यह साधना किस प्रकार की होगी? प्लेटो यह मानते हैं कि अबौद्धिक आवेग (वासनाएं) पथभ्रष्ट आत्माओं पर अपना आधिपत्य जमा लेते हैं और उन्हें बौद्धिक निर्णयों (विवेक) के विरूद्ध कार्य को बाध्य करते हैं। जब साधना के द्वारा इन अबौद्धिक आवेगों को बुद्धि के अधीन कर दिया जाता है, तो आत्मा के विभिन्न अंगों में संगति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार प्लेटोसुकरात से भिन्न मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की नवीन दिशा ग्रहण करते हैं। उनके अनुसार ये अबौद्धिक आवेग आत्मा के दो भिन्न-भिन्न पक्षों से सम्बंधित हैं, जिन्हें हम क्रमशः क्षुधात्मक पक्ष और मानसिक या गत्यात्मक पक्ष कहते हैं। प्लेटो ने आंतरिक अनुभव में संघर्षरत वासनाओं (आवेगों) के आधार पर इन दोनों पक्षों की एक दूसरे से तथा तीसरे बौद्धिक पक्ष से व्यावहारिक भिन्नता को स्पष्ट किया। प्रथम क्षुधात्मक पक्ष में ये सब इच्छाएं होती है, जो कि शारीरिक कारणों से उत्पन्न होती है और जिन्हें हम विशेष अर्थ में क्षुधाए कहते हैं। दूसरे आवेगात्मक या गत्यात्मक पक्ष को ऐसे संवेग-समूह का सामान्य स्रोत माना जाता है, जिनका सामान्य लक्षण सक्रिय एवं संघर्षात्मक क्रियाओं को प्रेरित करना होता है। इस संवेग-समूह के अंतर्गत क्रोध, साहस, लज्जा, मान-सम्मान की कामना एवं अपयश के प्रति घृणा आदि के भाव आते हैं, यद्यपि आधुनिक मनोविज्ञान इन