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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 39 आत्मसंयम का एक सुस्पष्ट प्रभाव प्रस्तुत करते हैं, जो कि उनकी सनक के कारण उपहास का विषय बन गया है। उनकी दृष्टि में एक विचारक के लिए ‘ज्ञान (प्रज्ञा)' और सदगुण के अतिरिक्त कुछ भी मूल्यवान् नही है। इस सिनिक मान्यता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है (1) अपनी उन आवश्यक वासनाओं (क्षुधाओं) और इच्छाओं का दमन, जिनके कारण उस सब के लिए चिन्ता और श्रम करना होता है, जो कि प्राप्त होने पर निस्सार प्रतीत होते हैं। (2) जनसाधारण के अबौद्धिक पूर्वाग्रहों एवं परम्पराओं के प्रति उपेक्षा। इसी दूसरे पहलू में सिनिक विचारधारा की मौलिकता और सुकरात से उनकी विभिन्नता को देखा जा सकता है। सिनिक विचारक परम्परागत नियमों और रीति रिवाजों का केवल इस आधार पर पालन करना नही चाहते है कि वे परम्परा से चले आ रहे हैं। वे जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए केवल उन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहते हैं, जो कि प्रज्ञा से निष्पन्न होते हैं और सभी मनुष्यों पर केवल इसलिए लागू होते हैं कि वे बुद्धिमान् प्राणी है। यदि सभी मनुष्य बुद्धिमान होगे, तो शासन और विधि सम्बन्धी विभिन्नताएं समाप्त हो जाएंगी, तब केवल एक ही राज्य होगा और एक ही विधान होगा। वह विधान स्त्री, पुरुष, स्वामी एवं दास सभी के लिए समान होगा। तब गुलामी भी नहीं रहेगी, क्योंकि उस आदर्श राज्य में जो कुछ विवेकपूर्ण कार्य होंगे, उन्हें करने के लिए दूसरों की आज्ञाओं की आवश्यकता ही नहीं होगी और अविवेकपूर्ण कार्य करने के लिए कोई भी दूसरों की आज्ञा को नहीं मानेगा। इस प्रकार सिनिक विचारधारा में हम विश्व नागरिकता एवं विश्वबन्धुत्व का विचार पाते हैं, जो कि इनके पश्चात् स्टोइक सम्प्रदाय में अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है, फिर भी अबौद्धिक इच्छाओं एवं र्वाग्रहों से मुक्ति पाने के अतिरिक्त प्रज्ञा और अन्तर्दृष्टि सम्बन्धी सिनिक धारणाओं में किसी निश्चित विधायक अर्थ की कल्पना करना व्यर्थ होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि अबौद्धिक इच्छाओं एवं पूर्वाग्रहों से मुक्ति पाने पर ही अधिक बल देते हुए उन्होंने इस वतंत्र बुद्धि को किसी निश्चित लक्ष्य की ओर निर्देशित नहीं किया, वरन् उसे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही छोड़ दिया है। प्लेटो का कथन है कि यह कहना मूर्खतापूर्ण है कि ज्ञान ही शुभ है और जब यह पूछा जावे कि किसका ज्ञान शुभ है? तो कोई विधायक उत्तर न देकर केवल यह कहना कि ‘शुभ का ज्ञान', किंतु सिनिक सम्प्रदाय ने इस असंगति से बचने के लिए कोई वास्तविक प्रयास किया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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