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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 310 सामान्य तत्त्व का सार्थक प्रत्ययें का संगठन ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती, जो कि बुद्ध की खोज के लिए पहले से ही अस्तित्ववान् हो। हमारे पास है, जो है वह संगठन की एक प्रक्रिया है, जिसे क्रमशः प्राप्त किया गया है। नीतिशास्त्र और ईश्वरवाद कुछ लेखकों ने ईश्वरवादी दर्शन में नीतिशास्त्र के लिए तत्त्वमीमांसीय आधार की खोज की है । वर्त्तमान युग में यही एक ऐसा निश्चय प्रयास प्रतीत होता है, जिसने नीतिशास्त्र के तात्त्विक - निहितार्थों पर नीतिशास्त्र की प्रतीति के स्तर पर लाए बिना ही विचार किया है। यह सार्ले के ग्रंथ नैतिक मूल्य और ईश्वर का प्रत्यय का केंद्रीय-सिद्धांत है और रशडाल के अनेकों ग्रंथों के मुख्य विवेच्यविषयों में से एक है । रशडाल ने इस तर्क को स्पष्टतया और संक्षेप में निम्न गद्यांश में प्रस्तुत किया है और जिसे सार्ले ने उद्भूत किया है। वह लिखता है कि एक निरपेक्ष नैतिक-नियम या नैतिक-आदर्श न तो भौतिक वस्तुओं में अस्तित्व रखता है और न इस या उस व्यक्ति के मन में अस्तित्व रखता है। यदि हम सिर्फ़ एक ऐसी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करते हैं, जिसने एक सच्चे नैतिक - आर्द को किसी अर्थ में उपलब्ध कर लिया है, पहले से, और यह विश्वास करते हैं कि यही एक ऐसी आत्मा है, जो हमारे नैतिक-निर्णयों में जो कुछ भी सत्य है, उसका स्रोत है, तो ही हम बुद्धिपूर्वक एक ऐसे नैतिक - आदर्श के सम्बंध में सोच सकते हैं, जो स्वयं इस विश्व की अपेक्षा कम यथार्थ नहीं है और तब ही हम उचित और अनुचित के एक निरपेक्षप्रमापक में आस्था रख सकते हैं, जो कि इस ओर उस व्यक्ति के यथार्थ विचारों और यथार्थ इच्छाओं से उतना ही स्वतंत्र है, जितने कि भौतिक - प्रकृति के तथ्य इन विचारों एवं इच्छाओं से स्वतंत्र हैं। सत् और ईश्वर में विश्वास सक्रिय आत्मा में विश्वास समान नैतिकता जैसी किसी वस्तु का उसमें अस्तित्व है, इस बात का अभ्युपगम नहीं है, अपितु एक वस्तुनिष्ठ और निरपेक्ष- नैतिकता की तार्किक पूर्व धारणा है। एक नैतिक - आदर्श मनस के अतिरिक्त कहीं भी और कैसे भी अस्तित्व नहीं रख सकता। एक निरपेक्ष नैतिक आदर्श केवल ऐसे मनस में अस्तित्व रख सकता है, जिससे सम्पूर्ण सत्ता निःसृत होती है 2 | हमारा नैतिक आदर्श केवल तब ही वस्तुनिष्ठ प्रामाणिकता का दावा कर सकता है, जहां तक कि वह बुद्धिपूर्वक शाश्वत रूप से ईश्वर के मनस में अस्तित्ववान् नैतिक-आदर्श के प्रकाशन (शुद्धि) के रूप में मान्य नहीं किया जा सकता। - -
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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