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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 29 लगाया है, उस पर सामान्यतया दो दृष्टिकोणों से विचार किया जा सकता है। एक ओर यह आरोप बिलकुल सहज और सरल है, किंतु दूसरी ओर वैज्ञानिक विधि में यह क्रांति ला देता है। उसमें तात्त्विक पद्धति के बीज निहित हैं। सरल शब्दों में तो सुकरात का आक्षेप यह है कि सोफिस्ट न्याय, संयम, नियम आदि की बात तो करते हैं, किंतु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं बता पाते हैं। विवश कर देने पर वे इनका जो विवरण देते हैं, वह भी न्याय, वैधानिकता आदि के विशेष उदाहरणों में उनके अपने ही निर्णयों से असंगत सिद्ध हो जाता है। सुकरात उन्हें इन असंगतियों को स्वीकार करने के लिए बाध्य कर देते थे। यद्यपि अपने ही द्वारा प्रयुक्त पदों के वास्तविक अर्थ का यह अज्ञान' जिसे सुकरात ने अपने समकालीन विचारकों में दिखाया है, मात्र ज्ञान की कमी का परिचायक नहीं था, फिर भी यह बहुत ही आश्चर्यजनक था और उसका अनावरण बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण था तथा दार्शनिक उपलब्धि थी। जिस प्रसिद्ध तर्क पद्धति के द्वारा उन्होंने अपने वादियों को उनके अज्ञान से अवगत कराया, वहीं तर्क पद्धति सामान्य प्रत्ययों की वास्तविक परिभाषाओं की वैज्ञानिक आवश्यकता का भी प्रतिपादन करती है, इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि विशेष तथ्यों की सावधानीपूर्वक तुलना के द्वारा ही परिभाषाएं प्राप्त की जाए। साथ ही अरस्तू के इस कथन की सार्थकता भी समझ में आ जाती है कि दर्शन के क्षेत्र में सुकरात का सबसे महा योगदान आगमन पद्धति और परिभाषाओं का प्रस्तुतिकरण है। यद्यपि यह मानना भी सुकरात की सरल तर्क पद्धति के लिए अधिक जटिल होगा और उसके विद्यातक प्रभावों को ठीक से नहीं बता पाएगा, क्योंकि प्लेटो के उन प्रारम्भिक संवादों से, जिनमें वास्तविक सुकरात की छाप कम से कम बदली हुई है, यह स्पष्ट हो जाता है कि इन अप्रतिरोधी तर्कों के परिणाम मुख्य रूप से निषेधात्मक ही थे। डेल्फिक की दिव्य वाणी ने उसे जो सर्वश्रेष्ठ प्रज्ञा प्रदान की थी, सुकरात ने उस प्रज्ञा को अज्ञान की विशिष्ट चेतना के रूप में ही माना था, परंतु प्लेटो की रचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुकरात की शिक्षाओं में एक विधायक सत्य भी उपस्थित है, यदि ऐसा नहीं मानेंगे, तो फिर सुकरात के व्याख्यानों को प्रत्यक्ष रूप से ऊंचा उठाने के झेनोफोन के प्रयत्न को तथा बिलकुल परम्परावादी उत्तरकालीन दार्शनिक सम्प्रदायों की उनके प्रति जो श्रद्धा है, उसको समझ पाना बिलकुल सम्भव नहीं होगा। सुकरात की कृतियों में इन दो विद्यायक और विद्यातक तत्त्वों के संयोग ने इतिहासकारों के लिए कुछ कम उलझन पैदा नहीं की है। हम सुकरात के सिद्धांतों की
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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