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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/302 के नैतिक-विचारों को प्रकट करती है, यद्यपि अन्य बातों में इन दोनों दार्शनिकों में मतभेद हैं। क्रोसे (जन्म 1866 ई.) क्रोसे के अनुसार, नैतिक-आचरण जीवन की अभिवृद्धि की दिशा में प्रतिस्पर्धी दावों के पुनः समायोजन में निहित है, लेकिन वह जीवन के कुछ पक्षों को इतना अधिक बढ़ा-चढ़ा देता है कि वह अपने को उन मूल्यात्मक-विचारों से सम्बंधित नहीं कर पाता है, जो कि जीवन को मूल्यवान् बनाते हैं। इसके साथ ही, वह अपने विचारों के द्वारा एक ऐसा संदेह उत्पन्न कर लेता है कि क्या ऐसा कोई मूल्यात्मक गहन विचार हो सकता है, या उसका होना आवश्यक है? जैसा कि क्रोसे मानता है, एक ऐसा दृष्टि- बिंदु हो सकता है, जिसमें प्रत्येक नैतिक-परिस्थिति विशिष्ट है, लेकिन यदि चिंतन का कोई अर्थ है और वह जीवन के निर्देशन में किसी प्रकार प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है, तो उसे मूल्य अथवा मूल्यों की कुछ ऐसी धारणाओं के निर्माण करने के योग्य होना चाहिए, जो विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तनों में भी कुछ स्थायी तत्त्व और कुछ संगति रखती हो। जीवन के निरंतर नवनिर्माण के लक्षण पर बल देने के कारण क्रोसे सातत्य, व्यवस्था एवं उस आत्मसंयम के लक्षणों के प्रति न्याय करने में असफल रहा, जिस पर अरस्तू ने बहुत पहले बल दिया था, फिर भी वह आनुभविक-विवेचन के महत्त्व को स्वीकार करता है, किंतु यह बात उसके व्यावहारिक-दर्शन के लिए कोई महत्त्व रखती हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। वह कहता है कि मनुष्य सुखों का भोक्ता नहीं है, अपितु जीवन का निर्माता है। यद्यपि अनुभव के आधार पर यह कहना अधिक सत्य है कि वह दोनों ही है, लेकिन व्यक्ति को प्रतिस्पर्धी दावों के पुनर्समायोजन की दिशा में नियोजित एवं निदर्शित कौन करता है? क्रोसे ऐसे किसी भी प्रश्न को अस्वीकार करता प्रतीत होता है। जीवन ही नैतिकसमस्या को उत्पन्न करता है और वही केवल उसका समाधान प्रस्तुत कर सकता है। वैचारिक-दृष्टि से नैतिक-समस्या को प्रस्तुत करने का प्रत्येक प्रयास अथवा जीवनपद्धति या जीवन-दृष्टि की गवेषणा का प्रत्येक प्रयास वस्तुतः किंकर्तव्य-मीमांसा है, तो यह निश्चित है कि विचार अपनी पूर्वगामी और पश्चगामी-दृष्टि के कारण अपने विश्लेषण और रचना के कारण जीवन का ही एक अंग है। जीवन मात्र प्रक्रिया नहीं है, नैतिकता सामान्य (सर्वव्यापी) संकल्प है। वह स्वयं ही प्रश्न पूछता है, यह सामान्य क्या है? और स्वयं ही उत्तर देता है कि यह आत्मा है, यह सत्ता है तथा जहां तक कि
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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