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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/276 योगदान पर बहुत ही कम विचार किया है, जो कि सामाजिक नैतिकता की उस वैधता पर निर्भर है, जिसकी जड़ खोदने में उसका सिद्धांत सदैव ही लगा रहा है। इस सहयोग (संस्कार) के महत्त्व का और इसकी व्यापकता का पीटर ऐलेक्सीविच ने विस्तार से विवेचन किया है। प्रिंस कोप्टोकिन' ने अपने ग्रंथ पारस्परिक सहयोग : विकास का आधार (1902) में तथ्यों के सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि पारस्परिक-सहयोग के सिद्धांत का प्रमुख महत्त्व विशेष रूप से नीतिशास्त्र के क्षेत्र में ही पूरी तरह दिखाई देता है। यह बात कि पारस्परिक-सहयोग ही हमारी नैतिकधारणाओं की वास्तविक आधार-भूमि है, बहुत ही अधिक प्रामाणिक प्रतीत होती है। सार्ले (1855) एवं शर्मन (1854) विकासवाद के नीतिशास्त्र की समीक्षा विलियस रिची सार्ले के ग्रंथ प्रकृतिवादी-नीतिशास्त्र (1855) और नीतिशास्त्र की समकालीन प्रवृत्तियां (1904) में तथा जेकव गोल्ड शर्मन के ग्रंथ डार्विनवाद का नैतिक-अर्थ (1886) में की गई है। नैतिकता के क्षेत्र में विकासवाद के सिद्धांत का उपयोग उस साध्य के स्वरूप का प्रश्न उठाता है, जिसकी ओर विकास की यह प्रक्रिया बढ़ रही है। समस्या यह है कि विकास की प्रक्रिया, चाहे वह भूतकाल में हो अथवा चाहे वर्तमान काल में हो, क्या हमें साध्य के स्वरूप के बारे में स्वतः आश्वस्त कर सकती है? बहुत से विकासवादी नीतिशास्त्र के समर्थकों ने मानवीय-आचरण का साध्य सुख के रूप में स्वीकार किया है, किंतु क्या सुख के साध्य का यह दृष्टिकोण नैतिक-आचरण के आदर्श के रूप में मानवीय-नैतिकचेतना और बुद्धि के समक्ष अपने-आप को न्यायसंगत ठहरा पाता है? क्या विकास की प्रक्रिया इस साध्य की ओर बढ़ रही है? क्या सुख के लक्ष्य से युक्त आचरण सदैव ही विकास में सहायक होता है। सार्ले तब ही कहता है कि प्राकृतिक-वरण का प्रभाव उन कार्यों में रोक नहीं पाया है, जो सुखद संवेदनाओं से युक्त होने के कारण जीवन के लिए हानिकारक हैं। जीवन के विकास का मुख्य अर्थ सदैव ही सुख की वृद्धि नहीं हो सकता है। जैसा कि शर्मन का कथन है कि डार्विन का जीव-विज्ञान यह बताने के लिए कोई तथ्य प्रस्तुत नहीं कर पाता है कि सुखद का तादात्म्य उससे है, जो कि उत्तरजीवितता की शक्ति देता है, अथवा जो जीवन-संघर्ष में सहायक है। जीवविज्ञान से सम्बंधित धारणा का एक रूप यह है कि सामाजिक-संतुलन आचरण का साध्य है, अथवा उसे आचरण का साध्य होना चाहिए, किंतु यह धारणा भी हमें
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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