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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/266 स्वरूप हमें श्री हर्बर्ट स्पेन्सर के ग्रंथ 'नीतिशास्त्र की विषयवस्तु' में देखने को मिलता है (देखिए पृ.44 से 47)। स्पेन्सर के अनुसार, नैतिक-चेतना का मुख्य लक्षण सहज एवं निम्न कोटि की भावनाओं का जटिल एवं उच्चकोटि की भावनाओं के द्वारा नियमन करना है, किंतु यह मुख्य लक्षण उन दूसरे अनुशासनों का भी है, जिन्हें सही अर्थों में नैतिक नहीं कहा जा सकता है। जंगली मनुष्यों के आवेगों का सर्वप्रथम नियंत्रण दूसरे जीवित या मृत मनुष्यों की नाराजगी के अस्पष्ट भय से होता है। मृतकों के भय का यह विचार प्रेतात्माओं में विश्वास के कारण होता है। फिर, इनसे क्रमशः न्यायिक-दण्ड का भय, ईश्वरीय-दण्ड का भय तथा सामाजिक-निंदा का भय का विकास होता है। इन्हीं भय-जनित नियंत्रणों (अंकुशों) के द्वारा नैतिक-आबंध के प्रत्यय का उद्भव हुआ है। उपरोक्त प्रसंगों में ये भयजनक परिणाम सायोगिक हैं, अनिवार्य नहीं हैं, तथापि बुरे कार्यों के द्वारा उत्पन्न उन अनिवार्य स्वाभाविक अनिष्टों की अपेक्षा इन भयजनक परिणामों को स्पष्टतया स्वीकार कर लेना आसान है, जिनका प्रस्तुतिकरण सही नैतिक-भावनाओं और नैतिक-नियंत्रणों (अंकुशों) का उचित स्रोत है। तदनुसार नैतिक-भावनाओं या नैतिक-नियंत्रण का विकास राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक-प्राधिकारों से उत्पन्न नियंत्रणों (अंकुशों) की अपेक्षा तथा सामाजिक-संगठन की उन अवस्थाओं में, जिनका निर्माण ये दूसरे नियंत्रण (अंकुश) करते हैं, धीरे-धीरे होता है। यद्यपि नैतिक-भावना के इस प्रकार से एक बार विकसित हो जाने पर चेतन-अनुभूतियों में ये हमारे दूसरे अंकुशों से बिलकुल स्वतंत्र होती है। स्पेन्सर का कहना है कि राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक-अनुशासनों (नियंत्रणों) के साहचर्य के कारण विशुद्ध नैतिक-अनुशासन (अंकुश) की यह निग्रह-शक्ति (नियामक-बल), जैसे ही नैतिक-प्रेरणा में स्पष्ट एवं प्रमुख होती है, नैतिक आबद्धता कम हो जाती है। इस प्रकार, जितनी तेजी से नैतिकता का विकास होता है, उतनी तेजी से नैतिक-आबंध या कर्त्तव्य-बोध का हास होता जाता है और इस प्रकार, नैतिकआबंध या कर्त्तव्य-बोध एक अस्थायी तत्त्व ही रह जाता है। 60. चौड़ाई-भिन्नता से स्पेन्सर का तात्पर्य परिवर्तन की मात्रा के उन अंतरों से है, जिनमें से एक ही समय में विभिन्न जीवित प्राणी गुजरते हैं। 61. देखें-नीतिविज्ञान नामक ग्रंथ (1882) 62. उस समाज विज्ञान को, जिसका कि निर्माण हो चुका है, कहां तक मान्य किया जाए, इस प्रश्न पर विकासवादी-विचारकों में पर्याप्त मतभेद होने की सम्भावना
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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