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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/260 में अभिव्यक्त हुआ है (1739 ई.), किंतु उसका अंतिम स्वरूप हमें इन्वयावरी इन्टू दी प्रन्सीपल्स् आफ मारलस् (1751 ई.) में मिलता है। क्योंकि प्रथम ग्रंथ की धारणाओं का स्वयं लेखक के द्वारा स्पष्ट खण्डन कर दिया गया था, इसलिए मैंने अपना ध्यान उसके परवर्ती ग्रंथ पर ही केंद्रित रखा है, जिसमें कि ह्यूम के विचार उसके दूसरे सभी लेखनों की अपेक्षा अतुलनीय रूप से उत्तम हैं। यद्यपि प्रजा के शासन के प्रति कर्तव्यों के संदर्भ में इसे सन् 1752 में प्रकाशित ग्रंथ ‘ऐसे आन ओरीजनल कान्ट्रेक्ट' के साथ देखना उचित होगा। मैं यह भी सोचता हूं कि न्याय की उत्पत्ति के सम्बंध में ह्यूम के विचारों को अकेले उस परवर्ती ग्रंथ के माध्यम से सरलतापूर्वक नहीं समझा जा सकता है। अपने ग्रंथ 'ट्रेस्टीज आन ह्यूमन नेचर' में वह न्याय एवं स्वहित के मूलभूत सम्बंध के बारे में मोटे तौर पर हाब्स के साथ सहमत है और हाब्स के समान ही यह मानता है कि न्याय के आबंध स्थापित उस सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व पर आधारित हैं, जिसे व्यक्ति के हितों की रक्षा करनी है। प्रथम प्रश्न इस स्थापित सामाजिक व्यवस्था की उत्पत्ति से सम्बंधित है। उसके अनुसार हाब्स की प्राकृतिक अवस्था केवल एक दार्शनिक कल्पना है। वह मानता है कि न्याय का पालन किसी स्पष्ट समझौते का परिणाम नहीं है, लेकिन यह उसी प्रकार परम्पराओं से क्रमशः विकसित हुआ है, जिस प्रकार भाषा और मुद्रा अस्तित्व में आई है। दूसरा प्रश्न मूलतः न्याय के नियमों के पालन की अभिमुख आत्महित के प्रेरक के द्वारा न्याय के नैतिक आबंध या उचित और अनुचित की भावना का न्यायपूर्ण या अन्यायपूर्ण कर्मों में विभाजित करने से सम्बंधित है, को प्रथम स्थान देकर इसे एकमात्र सद्गुण मानने के विरोधाभास से बच गया है और सत्यनिष्ठा, विनयशीलता, सक्रियता, अध्यवसायिता एवं दूरदर्शिता आदि गुणों को बहुत कुछ अपरिभाषित एवं अविवेचित गुणों की श्रृंखला खड़ी की है। जिसे नैतिक इंद्रिय या गौरव बोध की भावना के द्वारा अपरोक्षतया सद्गुणों के विभिन्न अंशों के रूप में अनुमोदित किया गया है। इसने स्वाभाविक रूप से ह्यूम जैसे व्यक्ति को, जो कि मनोविज्ञान में प्रायोगिक विधि को लागू करने को उत्सुक था, यह सुझाव दिया कि वैयक्तिक सद्गुणों के इन विभिन्न घटकों के अनुमोदन की समस्या को किसी सामान्य सिद्धांत के आधार पर सुलझाया जाए। कडवर्थ, क्लार्क आदि विचारकों ने यह माना था कि केवल बुद्धि ही ऐसा सिद्धांत प्रस्तुत कर सकती है, किंतु ह्यूम ने इस बात से स्पष्टतया इंकार कर दिया, निःसंदेह एक पूर्णतया अभ्रांत बुद्धि या निर्णायक शक्ति है। वह न्याय के नैतिक आबंध
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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