________________
शास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 248
-
कर्त्तव्य को कर्त्ता के एक सुख के साधन के रूप में नहीं, वरन् मात्र कर्त्तव्य के लिए करना चाहिए, तथापि वह यह मानता है कि हम इसे तब तक बौद्धिक रूप से नहीं कर सकते, जब तक कि हमें यह आशा न हो कि इसके करने से हमें सुख मिलेगा, इसलिए मनुष्य के लिए सर्वोच्च शुभ" न तो सद्गुण है और न केवल सुख, अपितु एक ऐसा नैतिक-संसार है, जिसमें सत्कार्य समुचित अनुपात में सुख से युक्त है। कां के अनुसार, हम बौद्धिक रूप से यह मानने को बाध्य हैं कि हम अनिवार्यतया एक ऐसे संसार के निवासी हैं, जो एक बुद्धिमान् निर्माता और शासक के अधीन है, क्योंकि बिना ऐसे संसार को माने नैतिकता के उच्च आदर्श वस्तुतः प्रशंसा और अनुमोदन के विषय होंगे, न कि कार्यों एवं उद्देश्यों के प्रेरक । हमें जगत् की ऐसी व्यवस्था की अधिमान्यता को स्वीकार करना होगा, जिसमें सुख की मांग कर्त्तव्य के द्वारा अर्जित पुण्य के रूप में अपनी संतुष्टि प्राप्त करती है, जो कि परलोक एवं ईश्वर
प्रति आस्था में निहित है, किंतु उस आस्था की निश्चितता केवल नैतिक-आधार पर निर्भर है, क्योंकि कांट के तात्त्विक सिद्धांतों के अनुसार, हमारे ज्ञान का यह प्राकृतिक जगत् है, मानवीय ग्राहक चेतना पर होने वाले प्रतिबिम्ब या संस्कारों का प्रपंच मात्र है, जो कि इसकी ज्ञाता आत्मप्रज्ञा के द्वारा समावित - अनुभूतियों के विषयों से संसार के साथ मिश्रित है, इसलिए हम वस्तुओं के निज-स्वरूप का न तो अनुभव कर सकते हैं और न जान सकते हैं। ( इस प्रकार, वस्तु तत्त्व अपने-आप में क्या है, इसका हमें न तो कोई अनुभव हो सकता है और न ज्ञान ही) इस प्रकार, हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी नैतिक चेतना द्वारा अपने-आप को एक अतीन्द्रिय-जगत् के सदस्य के रूप में जानता है, यद्यपि वह उस जगत् के स्वरूप के सम्बंध में कुछ भी नहीं जानता है। वह यह जानता है कि वह केवल इस प्रपंच के अतिरिक्त भी कुछ है, किंतु वह क्या है, यह नहीं जानता है। तदनुसार, यद्यपि मुझे यह बौद्धिक-निश्चितता हो सकती है कि भावी - जगत् और ईश्वर है, लेकिन कांट के अनुसार, यह निश्चितता मुझे विमर्षात्मक - ज्ञान के लिए उपलब्ध नहीं है। सैद्धांतिक रूप से मैं उन विश्वासों का सत्य नहीं जानता हूं, लेकिन व्यवहार के लिए मुझे उन्हें आधारभूत मानना होगा, ताकि जिसे मैं व्यावहारिक बुद्धि के निरपेक्ष रूप से प्रदत्त आदेश के रूप में स्वीकार करता हूं, उसका बुद्धि-पूर्वक पालन कर सकूं।
कांट के बाद का नीतिशास्त्र
कां की मृत्यु (1804) के पूर्व ही आंग्ल- विचारक कोलरिज के द्वारा कांट