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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/235 किसी दूसरे दृष्टिकोण को अपनाने के लिए तैयार किया जा सकता है, इस तुलनात्मकउदासीनता का स्पष्ट कारण देने के लिए यह आवश्यक है कि उन तीन विभिन्न अर्थों को, जिनमें स्वतंत्रता को संकल्प या मनुष्य की अंतरात्मा के साथ जोड़ा जाता है, अलग-अलग कर लिया जावे, उदाहरणार्थ (1) पहले अर्थ में स्वतंत्रता किसी प्रेरणा के बिनाया संघर्षशील प्रेरकों के परिणामी-बल के विरुद्ध कार्य के विभिन्न विकल्पों के बीच चयन करने की सामान्य शक्ति है, (2) दूसरे अर्थ में, जब क्षुधाएं बुद्धि के साथ विरोध में हों, तब बुद्धि और उन क्षुधाओं (या दूसरे अबौद्धिक-आवेगों) की प्रेरकों के बीच चयन करने की शक्ति है और (3) तीसरे अर्थ में, वह कितने ही प्रबल एवं संघर्षशील आवेगों के होते हुए भी विवेकपूर्वक कार्य करने का गुण है। इसे मध्ययुगीन धर्मशास्त्रियों ने कहा है। यह स्पष्ट है कि इस तीसरे अर्थ में स्वतंत्रता पहले और दूसरे अर्थों की स्वतंत्रता से एक बिलकुल भिन्न तथ्य है और वस्तुतः यही एक ऐसी आदर्श अवस्था है, जिसकी किसी भी नैतिक व्यक्ति को उस गुण की अपेक्षा अभिलाषा करना चाहिए, जिसका धारक मानवीय संकल्प कहा जाता है। पुनः, स्वतंत्रता का प्रथम अर्थ दूसरे अर्थ से भिन्न है, इसमें प्रथम अर्थ स्वतंत्रता की स्वीकृति का कोई नैतिक-महत्त्व प्रतीत नहीं होता है, सिवाय इसके कि यह मानवीय-आचरण के सम्बंध में हमारे सभी अनुमानों की सामान्य अनिश्चितता को सूचित करती है। अपने दूसरे अर्थ में भी मानवीय-संकल्प की स्वतंत्रता को उत्तमता या औचित्य का परीक्षण करने वाला तथ्य मुश्किल से ही कहा जा सकता है, यद्यपि कर्त्तव्य की स्पष्ट धारणाएं भी अक्सर निरर्थक होंगी, यदि उन कर्त्तव्यों के करने हेतु व्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए मनुष्यों में पर्याप्त आत्म-संयम नहीं हो। जब हम यह प्रश्न पूछते हैं कि गलती करने के लिए क्या व्यक्ति को सजा देना उचित है? तब यह जानना महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है कि क्या व्यक्ति (जो कुछ उसने किया है) उससे भिन्न कुछ कर सकता था, लेकिन प्रतिफ लात्मक न्याय के सम्बंध में संकल्प की स्वतंत्रता को वस्तुतः जो महत्त्व दिया जाता है, वह सही अर्थ में नैतिक होने की अपेक्षा धार्मिक अधिक है, कम-से-कम इस युग की हमारी विवेचना के अधिकांश भाग में। हम, 17 वीं शताब्दी के प्रोटेस्टेण्ट धर्मज्ञों की चर्चाओं में इस प्रश्न को जो महत्त्व दिया गया था, उसका विरोध नहीं करते हैं, फि र भी हाब्स से लेकर ह्यूम तक इंग्लिश-नीतिवेत्ताओं ने सामान्य रूप में कर्त्तव्य के साथ अथवा विशेष रूप में न्याय के साथ संकल्प की स्वतंत्रता के सम्बंध पर बल दिया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। हाब्स की मान्यता यह है कि स्वेच्छा केवल प्रतियोगी