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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/231 है, जिसके परिणाम दुःख से अमिश्रित (रहित) हों। ऐसा आचरण, जिसके परिणाम सुयश हों अथवा दु:ख के सहचारी हों, आंशिक-रूप से अनुचित ही होगा और नीति-विज्ञान प्रथमतया निरपेक्ष रूप से उचित का बोध कराने वाले सत्यों की एक पद्धति है और इसलिए यह स्पष्ट है कि ऐसे सत्य प्रत्यक्ष रूप से वास्तविक आदमी के कार्यों से सम्बंधित नहीं हैं। एक निरपेक्ष नीतिशास्त्र कार्यों और उनके परिणामों के बीच अनिवार्य सम्बंधों की स्वीकृति से सम्बंधित है और उसमें निश्चित सिद्धांतों के द्वारा यह निगमन किया जाता है कि एक आदर्श समाज में कौन-सा आचरण हितकारी और कौन-सा आचरण अहितकारी होगा। जब इस निष्कर्ष का क्रियान्वयन किया जावेगा, तो यह एक निम्न स्तर से सम्बंधित होगा, जिसे स्पेंसर सापेक्ष-नैतिकता कहते हैं और इस प्रकार, निरपेक्ष और सापेक्ष-नैतिकता को अलग करते हैं। सापेक्षनैतिकता साधारणतया अनुभवात्मक पद्धति से यह निर्णय करती है कि निरपेक्ष नैतिकता के नियम उस देश और काल में मानव प्राणियों पर कहां तक लागू किए जा सकते हैं। मुझे यह जानकारी नहीं है कि विकासवादी-दृष्टिकोण के आधार पर नीतिशास्त्र के किसी अन्य लेखक ने स्पेन्सर के सापेक्ष और निरपेक्ष-नैतिकता के सम्बंधों के सिद्धांत को स्वीकार किया हो, किंतु दूसरे अन्य विकासवादी-लेखक भी हैं, जिनमें प्रतिनिधि के रूप में लेस्लीस्टीफन61 को लिया जा सकता है। वे जहां बौद्धिक आचरण के परमसाध्य के रूप में सुख को स्वीकार करते हैं, वहीं वे इस साध्य के लिए कार्यों की प्रेरणा को अनुभवात्मक-रूप में स्वीकार करने की बेंथम की पद्धति को अस्वीकार भी करते हैं। वे यह जानते हैं कि नैतिकता की एक अधिक वैज्ञानिक कसौटी समाजरूपी शरीर की कुशलता हेतु सहायक कार्यों की खोज के द्वारा प्राप्त की जा सकती है। कुशलता से तात्पर्य स्वयं अपने (समाज के) संरक्षण से है। इसकी प्राचीन उपयोगितावादी-दृष्टिकोण से तुलना करते समय यह बात महत्त्वपूर्ण होगी कि विरोध को अतिरंजित रूप से प्रकट नहीं किया जाए। सम्भवतया, किसी भी सम्प्रदाय का कोई भी ऐसा नीतिवेत्ता नहीं होगा, जो समाज के संरक्षण के नियमों और आदतों के मौलिक महत्त्व से इंकार करे। निश्चित ही कोई भी उपयोगितावादी निराशावादी नहीं है, अतः शायद ही कोई उपयोगितावादी ऐसा होगा, जो इस परिणाम की उपलब्धि को नैतिकता के एक अपरिहार्य कार्य के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। अपने उपयोगितावादी-दृष्टिकोण के आधार पर वह यह मानेगा कि नैतिक विकास के प्रथम स्तरों पर, जबकि जीवित रहना ही मानव-जाति के लिए सबसे कठिन था, तब यही
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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