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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 213 पहला, दूसरा और चौथा सिद्धांत क्रमशः मानवीय प्रेरणा के तीन वर्गों अर्थात् भावनाओं, मनोजन्य- इच्छाओं और क्षुधाओं के नियामक हैं। इस प्रकार, इनमें दो सामान्य सिद्धांतों अर्थात् सत्यनिष्ठा और नैतिक उद्देश्य को जोड़ देने से यह सूची बहुत-कुछ रूप में सुव्यवस्थित एवं पूर्ण हो जाती है। यद्यपि जब हम निकटता से देखते हैं, तो यह पाते हैं कि आज्ञा का सिद्धांत या शासन के आदेशों का पालन राजनीतिक-निरपेक्षतावाद को लागू करने में गम्भीरतापूर्वक प्रवृत्त नहीं है, जैसा कि उससे अभिव्यक्त होता है और जिसका आंग्ल- बौद्धिक चेतना बलपूर्वक निरसन करती है, जबकि न्याय का सिद्धांत एक पुनरुक्ति के रूप में किया गया है, अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वयं के अधिकार को प्राप्त करना चाहिए। वस्तुतः, व्हीवेल यह बताता है कि इस परवर्ती सिद्धांत की विधायक नियम के द्वारा व्यावहारिक रूप से व्याख्या की जाना चाहिए। यद्यपि वह असंगत रूप से यह कहता है कि मानो इस सिद्धांत ने नियमों के औचित्य और अनौचित्य का निश्चय करने के लिए एक प्रमापक प्रस्तुत कर दिया हो । पुनः, पवित्रता का सिद्धांत, अर्थात् हमारी प्रकृति के निम्न अंशों को उच्च अंगों के आधीन होना चाहिए, केवल ऐन्द्रिक - तार्किक - आवेगों पर बुद्धि की प्रधानता को परिलक्षित करता है, जो कि नैतिकता की बौद्धिक धारणाओं में निहित है। इस नैतिकता की बौद्धिक - धारणा का उपयोग उन प्राणियों के लिए है, जिनके आवेग उन्हें अपने बौद्धिक - कर्त्तव्य से विमुख करते हैं। इस प्रकार, यदि हम सुख के विचार के अतिरिक्त किसी स्पष्ट, सुनिश्चित एवं आधारभूत अंतः प्रज्ञा की अपेक्षा करते हैं, तो हमें केवल सत्यनिष्ठा (जिसके अंतर्गत प्रतिज्ञा पालन भी विहित है) के अतिरिक्त व्हीवल के सिद्धांतों में कुछ नहीं मिलता और इसकी भी स्वतः प्रामाणिकता की विशेषता अधिक निकटता से देखने पर लुप्त हो जाती है, क्योंकि यह नहीं माना गया हैं कि यह नियम व्यावहारिक रूप से पूर्ण है, लेकिन केवल यह कि इस नियम की विशेषताओं का निर्धारण व्यावहारिक रूप से असंभव है। - - वर्त्तमान युग में जीवित नैतिक-अंतःप्रज्ञा के सिद्धांत को मानने वाले लेखकों के साथ इस विवाद में उतरना इस पुस्तक का विषय नहीं है। ये विचारक मोटे रूप से बटलर और रीड के सिद्धांतों से सम्बंधित हैं, किंतु हमारी दृष्टि से यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि अंतः प्रज्ञावादी से प्रदाय का सिद्धांत मध्ययुग से लेकर वर्त्तमान शताब्दी तक अपेक्षित संगति और जागरूकता के साथ विकसित नहीं हो पाया है, विशेष रूप से उन मूलभूत स्वयं-सिद्धियों या अंतः प्रज्ञा के द्वारा ज्ञात नैतिक तर्क के आधार
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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