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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/189 करता है कि अक्सर मृत्यु के सन्निकटता होने पर व्यक्ति में उन लोगों के कल्याण की इच्छा, जिन्हें वह प्यार करता है, घटने की अपेक्षा बढ़ जाती है। यह कठिन परीक्षण प्रेम की निष्कामता को सिद्ध करता है। इसके साथ सहमति परक वे साध्य जोड़ देने से कि सहानुभूति और प्रशंसा, जो सामान्यतया आत्मत्याग के आधार बनते हैं, इस विश्वास पर आधारित है कि ये केवल परिष्कृत आत्मोपलब्धि से भिन्न वस्तु है, अब इस बात पर विचार करना शेष रहता है कि क्या भावना (नैतिक) अनुमोदन का वास्तविक विषय है? इस सिद्धांत के द्वारा हम किस प्रकार बाहरी कार्यों का निर्धारण या निषेध करने वाले नैतिक नियमों का या प्राकृतिक नियमों का निगमन कर सकते हैं? यह स्पष्ट है कि सामान्य सुख के संकल्प के प्रेरक सभी कार्य यदि निष्काम परोपकार की भावना से किए जाते हैं तो वे हमारे उच्चतम अनुमोदन की अपेक्षा करते हैं। किंतु यदि वे (उस भावना) से नहीं किए जाते, तो प्रश्न उठता है, क्यों नहीं किए जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हचीसन वास्तविक शुभत्व और आकारिक शुभत्व के बीच विद्वतापूर्ण ढंग से एक विभेद रेखा खींचने का प्रयत्न करता है। वह कहता है कि एक कार्य तब ही वास्तविक शुभ होगा, जब कि वह समाज व्यवस्था के हित में वस्तुतः प्रवृत्त होता है, जहां तक कि हम उसकी प्रवृत्ति का मूल्यांकन कर सकते हैं अथवा उस समाज तंत्र के साथ संगतिपूर्ण होने पर वह कुछ अंश में शुभ होगा, फिर चाहे कर्ता की भावनाएं कुछ भी हो। एक कार्य तब आकारिक शुभ होगा जबकि वह यथार्थ अनुपात में शुभ भावना से युक्त होगा। इस विभाजन की धुरी के द्वारा हचीसन शेफ्ट्सबरी के दृष्टिकोण से परवर्ती उपयोगितावादी दृष्टिकोण की ओर अग्रसर होता है। जहां तक किसी कार्य के भौतिक शुभत्व का प्रश्न है वह स्पष्ट रूप से पूरी तरह उस दृष्टिकोण को स्वीकार करता है, जिसे बाद में बेंथम ने अपना मुख्य सिद्धांत बनाया है, वह यह मान लेता है कि वही कार्य अच्छा है, जिससे अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख की प्राप्ति होती है और वह कार्य बुरा है, जिससे अधिकतम संख्या के अधिकतम दुःख के अवसर उपस्थित होते हैं। यद्यपि बाह्य अधिकारों एवं कर्तव्यों के सम्बंध में उसका सिद्धांत अपनी पद्धति में स्पष्टता और सूक्ष्मता की दृष्टि से पेले और बेथम से निश्चित ही निम्न स्तर का है, किंतु मौलिक रूप से उनसे भिन्न नहीं है। मात्र यही कि व्यक्तियों के सुख में प्रत्यक्ष रूप से सहायक कार्यों पर अधिक बल देता है और उनकी सामान्य शुभ सम्बंधी प्रवृत्तियों का अनुमोदन केवल पूरक रूप में अथवा प्रतिबंधात्मक रूप से करता है। इसमें यह भी देखा जाता है कि क्या वह राज्य
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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