SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/179 है, जिन्होंने मनुष्य जैसे निरीह प्राणी के आत्म-गौरव और आत्म-प्रदर्शन पर खेलते हुए इन्हें उन पर लागू किया है। यद्यपि उसने यह दृष्टिकोण निर्भीकतापूर्वक अभिव्यक्त किया है कि नैतिक नियमन प्राकृतिक मनुष्य के लिए विजातीय तत्त्व हैं और बाहर से थोपे गए हैं। ऐसा लगता है कि यह दृष्टिकोण उसके युग के विनम्र समाज में बहुत ही प्रचलित था, जिसका अनुमान बर्कले के और बाटलर के बहुप्रसिद्ध उपदेशों से लगाया जा सकता है। बटलर (1692 से 1752) बटलर ने मानव प्रकृति के सम्बंध में जिस दृष्टिकोण का विरोध किया था वह न तो मेण्डीव्हिले का था और न उसे सम्यक् रूप से हाव्स का ही कहा जा सकता है। यद्यपि बटलर इसे हाव्स के मनोविज्ञान के दार्शनिक आधार के रूप में मानता है। ऐसा कह सकते हैं कि हाव्सवाद ही था, जो भीतर से बाहर की ओर पलट दिया गया था और जो रचनात्मक होने की अपेक्षा अराजक और स्वेच्छाचारी हो गया था। हाव्स ने कहा था कि मनुष्य की प्राकृतिक अवस्था न तो नैतिक थी और न नियमित। नैतिक नियम शांति के साध्य के साधन थे और यह शांति का साध्य भी आत्मरक्षण के लक्ष्य का साधन था। जहां तक हाव्स नैतिकता के इस दृष्टिकोण की व्याख्या करता है, वह इसे कृत्रिम (औपचारिक) एवं अपनी वास्तविकता के लिए उस सामाजिक आबंध पर आश्रित मानता है, जो कि शासन (राज्य) की स्थापना करता है, जबकि बटलर के अनुसार यह वस्तुतः मनुष्य पर एक बुद्धिमान प्राणी होने के नाते बंधनकारक हैं, किंतु यह एक अधार्मिक मान्यता ही थी कि जो प्राकृतिक है, उसे बौद्धिक भी होना चाहिए। सम्भवतया, यह उन अधिकांश लोगों के मस्तिष्कों में रही हुई थी, जो निरंकुश स्वार्थवाद को प्राकृतिक मानते थे। इन दो विश्वासों के मिश्रण से जो परिणाम उत्पन्न हुए, यद्यपि व्यावहारिक रूप में वे शांति के विनाशक नहीं थे, तथापि सामाजिक- कल्याण के लिए खतरनाक अवश्य थे। बटलर भी इस दृष्टिकोण से आत्मसंतुष्ट नहीं था, जैसा कि असावधानी से कभी-कभी उसे मान लिया जाता है। उसने केवल अंतर्विवेक की प्रामाणिकता के स्वाभाविक दावे पर जोर दिया, जिसे कि उसके विरोधियों ने कृत्रिम कहकर त्याग दिया था। वह एक सूक्ष्म ओर प्रभावक तर्क का उपयोग करता है। सबसे प्रथम वह शेफ्ट्स बरी का अनुसरण करते हुए यह बताता है कि सामाजिक अनुराग भी उन क्षुधाओं और इच्छाओं की अपेक्षा. जो कि प्रत्यक्ष रूप में आत्मरक्षण की ओर प्रवृत्त होती हैं कम प्राकृतिक
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy