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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा / 177 नहीं है। यह सिद्धांत उसकी नैतिक संरचना के महल की नींव का पत्थर होने की अपेक्षा उसका शिखर है । ऐसा व्यक्ति भी, जिसे नैतिक बोध नहीं है, शेफ्ट्सबरी के दृष्टिकोण की यह बात अपने हित जीवन में पाएगा कि वह अपने जीवन में सामाजिक और वैयक्तिक अनुरक्तियों का वास्तविक संतुलन बनाए रखे, जो कि मानवजाति के हित में बहुत ही अधिक सहायक है। यदि ऐसा व्यक्ति का अस्तित्व है, तो उसके सम्बंध में सम्यक्तया यह कहा जा सकता है कि उसमें अच्छाई है, यद्यपि सद्गुण नहीं है, किंतु शेफ्ट्सबरी का कहना है कि ऐसा व्यक्ति वस्तुतः नहीं पाया जाता है। न केवल उन प्राणियों में, जो कि अपने आपको केवल ऐन्द्रिकता (सुखों) के लिए समर्पित करते हैं वरन् बुद्धिमान प्राणियों में भी जो अनुराग के विषय होते हैं, किंतु वे क्रियाएं, जो अपने-आपमें और दया करुणा - कृतज्ञता के अनुराग और उनके विरोधी अनुराग चिंतन के द्वारा जब मनस के समक्ष प्रस्तुत होती हैं अनुराग की विषय बन जाती हैं, ताकि वैचारिक बोध के द्वारा उन्हीं अनुरागों के प्रति दूसरे प्रकार के अनुराग वहां उत्पन्न हो अर्थात् अच्छाई के अपने स्वाभाविक सौन्दर्य और मूल्य के लिए अच्छाई के प्रति प्रेम और उसके विरोधी के लिए घृणा । वह यह असम्भव मानता है कि एक बुद्धिमान प्राणी इस नैतिक अथवा प्रतिवर्त संवेदनशीलता से पूरी तरह शून्य हो, जबकि यह संवेदनशील शुभाचरण के लिए एक अतिरिक्त प्रेरणा प्रदान करती है और इसके द्वारा सामाजिक और वैयक्तिक अनुरागों के संतुलन की कमी की पूर्ति अथवा उनमें परिष्कार किया जा सकता है। एक अतिरिक्त कृतज्ञता का ज्ञापन इस संगणना पर विचार करते समय करना होगा, जो कि वैयक्तिक और सामाजिक हितों में अनुरूपता ( सहभागिता ) को सिद्ध करती है। नैतिक इंद्रिय जब वह विशुद्ध हो तो उसकी कार्यशीलता के लिए शेफटसबरी की यह मान्यता है कि वह सदैव ही मानवजाति के लिए क्या शुभ होगा और क्या अशुभ होगा, उसके बौद्धिक निर्णय के साथ संगति रखेगी। यद्यपि उससे ऐसे निर्णय की बाह्य निर्मिति का निहित होना आवश्यक नहीं है। वह यह भी मानता है कि कोई भी चिंतनात्मक विचार ( मत) अपरोक्षरूप से एवं तत्काल इस नैतिक इंद्रिय को समाप्त करने या इसके बोध का बहिष्कार करने में सक्षम नहीं है, यद्यपि यह सम्भव है कि रीति-रिवाजों और अभ्यासों के द्वारा इसे बहुत-कुछ रूप से खोया जा सकता है और यह भी सम्भव है कि ऐसे किसी मिथ्या धर्म के कारण, जो कि अनैतिक गुणों से युक्त देवता के प्रति श्रद्धा और आदरों से युक्त है। यह नैतिक - इन्द्रिय पूरी तरह से पथभ्रष्ट हो सकती है।
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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