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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/175 संतोष, शुभ संकल्प और जाति के प्रति सहानुभूति के रूप में पाया जाता है, (2) आत्म प्रेम - जिसके अंतर्गत जीवन के प्रति ममत्व, शारीरिक क्षति से बचाव, दैहिक क्षुधाएं, रुचियां अथवा सुख-सुविधाओं की वे इच्छाएं आती हैं, जिनके द्वारा हम सम्पन्न हों। (3) अस्वाभाविक अनुराग - जिसके अंतर्गत न केवल आत्मरक्षण को छोड़कर सभी अकल्याणकारी प्रेरणाएं आती हैं, अपितु अंधविश्वास, असभ्य रीतिरिवाज, भ्रष्ट क्षुधाएं और कुछ ऐसी आत्मावेग (आत्मवासनाएं) आती हैं, जिनकी मात्रा अत्यधिक होती है। शेफट्सबरी प्रथम वर्ग का महत्व इसलिए मानता है कि ये उन व्यक्तियों के सुख के साधन हैं जो कि उनका अनुभव करते हैं। शरीर के सुख की अपेक्षा मानसिक सुख श्रेष्ठ है और इस लोक-मंगलकारी आत्मीयता से मानसिक संतुष्टि के सुंदरतम फ ल की निम्न प्रकार से प्राप्ति होती है- (1) लोकमंगलकारी भावना - स्वतः ही आनंदकारक है, (2) दूसरों के सुखों की सहानुभूतिजन्य प्रसन्नता, (3) उनके प्रेम और आदर की चेतना से उत्पन्न होने वाला सुख। वह यह बताता है कि सामाजिक स्नेह मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सामाजिक स्नेह जीवन का उतना ही अपरिहार्य अंग है, जितने हमारे विषय-भोगों के ऐन्द्रिकसुख, जो सामान्यतया हमारे जीवन के लिए अपरिहार्य माने जाते है। वह अंत में कहता है कि इस स्वाभाविक और कल्याणकारी आत्मीयता को सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करना आत्मिक आनंद की प्राप्ति का मुख्य स्रोत एवं साधन है और इसका अभाव निश्चित ही दुःख एवं वेदना की प्राप्ति है। यद्यपि दूसरों के कल्याण के इन निष्काम आवेगों के सम्बंध में अस्वाभाविक दृष्टिकोण से ऐसा अभास होता है कि ये मनुष्य को उसके शुभ से दूर ले जाते हैं, किंतु वस्तुतः वे उसे शुभ की ओर ही ले आते हैं। दूसरी ओर आत्मानुराग या आत्मवासनाएं जो कि शेफ्ट्सबरी के अनुसार आत्मप्रेम का निर्माण करती है, उनका सीधा लक्ष्य व्यक्ति का शुभ प्रतीत होता है, किंतु यह केवल तभी ही होता है, जबकि उन्हें कठोर मर्यादा में रखा जाए, ताकि वे वस्तुतः शुभ की वृद्धि करे। इसे बताने के लिए वह इन बातों का विस्तारपूर्वक निरूपण करता है कि क्रोध दुःखद है, ऐन्द्रिक-क्षुधाओं की अतिपूर्ति के द्वारा अंततोगत्वा सुख का स्पष्ट रूप से नाश होता है, प्रशंसा पाने की अत्यधिक इच्छा आकुलता और अशांति को जन्म देती है और अत्यधिक आलस्य से अनेक प्रकार की अनिष्टों की प्राप्ति होती है। यहां तक कि यदि जीवन के प्रति भी अत्यधिक ममत्व होता है, तो वह उस व्यक्ति को, जो कि उसमें अनुरक्त है दुःखदता की ओर ही
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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