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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/ 15 हितों के इस सम्बंध को आस्था का विषय बताया है। कर्त्तव्य का पालन आत्म-प्रेम या स्व-हित की गणना के आधार पर नहीं, वरन् कर्त्तव्य की भावना से किया जा सके, इसे जान बूझकर अविवेचित ही छोड़ दिया गया है। इस प्रकार हम नीतिशास्त्र के एक दूसरे प्रत्यय की ओर आते हैं, जिसका सम्बंध कर्त्तव्य या उचित आचरण सम्बंधी सामान्य नियमों से है और जिसे कभी-कभी नैतिक विधान भी कहा जाता है। ये सामान्य नैतिक नियम सभी मनुष्यों पर निरपेक्ष (निरापवाद) रूप से लागू होते हैं और व्यक्ति को इनका पालन अपने वैयक्तिक हितों का विचार किए बिना ही करना होता है। नैतिक दृष्टि से कर्त्तव्य और कर्ता के वैयक्तिक हितों में गौण सम्बंध ही माना गया है। जब कर्त्तव्य के नियमों को ईश्वरीय विधान मान लिया जाता है तो नीतिशास्त्र का अध्ययन एक दूसरे प्रकार से धर्मशास्त्र से सम्बंधित हो जाता है। हम यह भी देखेंगे कि नीतिशास्त्र का अमूर्त विधि-शास्त्र से भी निकट का सम्बंध है। अमूर्त विधिशास्त्र ऐसे बुद्धि संगत वैधानिक नियमों से सम्बंध रखता है, जिनकी प्रामाणिकता स्वाभाविक एवं सार्वभौम होती है। अपने इस स्वरूप के आधार पर वे न्यायिक दंड देने के लिए मानवीय विधान पर निर्भर नहीं होते हैं। क्योंकि ऐसे न्यायिक नियम सदैव ही सम्पूर्ण नैतिक नियमों का तो नहीं, किंतु उनके एक महत्वपूर्ण भाग का निर्माण अवश्य करते हैं। यद्यपि उपरोक्त दृष्टिकोण आधुनिक नीतिशास्त्र के विरोध में जाता है, किंतु नीतिशास्त्र की प्रारम्भिक अवस्था में ग्रीक दार्शनिकों के द्वारा इसे स्वीकार किया गया है।' नीतिशास्त्र और न्यायशास्त्र का एक दूसरे में संक्रमण मुख्यतया ईसाई धर्म प्रभाव के कारण तथा आंशिक रूप से रोमन न्याय के कारण हुआ है। यद्यपि यह सत्य है कि अलिखित निर्दोष ईश्वरीय विधान का विचार ग्रीक चिंतन में अनुपस्थित नहीं है, तथापि प्राचीन नैतिक विचारधाराओं में इसे अंतिम एवं आधारभूत प्रत्यय नहीं माना गया हैं। उनकी मान्यता यह थी कि विवेकशील प्राणी होने के नाते मनुष्य को अपने ऐहिक जीवन के परम शुभ की खोज स्वयं करना चाहिए और इसलिए कोई भी नियम, जिसका उसे पालन करना है, उसके इस शुभ की उपलब्धि के साधन के रूप में ही होना चाहिए अथवा शुभ के उन विशेष घटकों के रूप में होना चाहिए, जिनमें उस शुभ को प्राप्त किया जा सकता है। जब हम उन लोगों की अपेक्षा, जो ईसाई धर्म की धार्मिक भावनाओं से पूर्णतया प्रभावित हैं, जनसाधारण पर उसके प्रभाव को देखते हैं, तो इस सम्बंध में ईसाई धर्म के द्वारा किया गया परिवर्तन अधिक आश्चर्यजनक लगता है। इस दुनिया में रहने वाले एक सच्चे ईसाई संत के लिए भी
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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