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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/159 इच्छा या उद्देश्य रखने को बाध्य है, क्योंकि ये नियम शांति की प्राप्ति के साधन होंगे
और जहां तक मनुष्य अपने साथियों के साथ विभिन्न सम्बंधों से सम्बंधित है। प्रकृति का प्राथमिक एवं मौलिक नियम शांति की प्राप्ति करना है और उसको बनाए रखना है। किंतु यदि शांति की स्थापना नहीं हो पाती है, तो वह बुद्धिसंगत युद्ध का वरण कर सकता है, वह युद्ध की सहायताले सकता है एवं उसके लाभों का उपयोग कर सकता हैं। यह बात आत्मरक्षण के प्राकृतिक साध्य के विपरीत होगी कि (1) दूसरे के हितार्थ एकतरफा नैतिक नियमों के पालन के लिए व्यक्ति अपने को समर्पित कर दे और स्वयं दूसरों का शिकार बन जाए अथवा (2) जबकि इस बात की पूर्ण सुरक्षा है कि उनका पालन दूसरों के द्वारा किया जाएगा वह उन नियमों का पालन करने से इंकार कर दे
और इस प्रकार शांति के स्थान पर युद्ध का रास्ता चुने। वह प्राकृतिक अवस्था, जिसमें शासन (राज्य संस्था) की स्थापना के पूर्व मनुष्य रहता था और राज्य के समाप्त हो जाने पर, जिसमें मनुष्य को रहना पड़ेगा, वस्तुतः नैतिक मर्यादाओं से स्वतंत्र अवस्था होगी, किंतु इसलिए वह पूरी तरह दुःखों से परिपूर्ण अवस्था भी होगी, यह वह अवस्था है, जिसमें पारस्परिक साधार भय के कारण प्रत्येक व्यक्ति किसी वस्तु पर आधारित रहेगा, यहां तक कि दूसरों के शरीर पर भी, क्योंकि वह भी उसके आत्मरक्षण में सहायक हो सकता है, या जैसा कि हाव्स कहता है यह वह
अवस्था है, जिसमें उचित-अनुचित अथवा न्याय-अन्याय की कोई स्थिति नहीं होती है, इसलिए यह अवस्था युद्ध की अवस्था होती है जिसमें प्रत्येक हाथ अपने पड़ोसी के प्रति उठा होता है। बुद्धिसंगत आत्मप्रेम का प्रथम आदेश यह है कि इतनी दुःखद एवं संकटपूर्ण अवस्था से निकलकर एक व्यवस्थायुक्त राष्ट्रमण्डल की शांति में प्रवेश करें। ऐसे राष्ट्रमण्डल का अविर्भाव या तो प्रजाजनों के एक-दूसरे के प्रति किए गए इस संविदे के द्वारा होता है कि वे किसी व्यक्ति या निश्चित इकाई के रूप में कार्य करने वाली सभा को सार्वभौम सत्ता (प्रभुसत्ता) मानकर उसकी आज्ञाओं का पालन करेंगे, अथवा शक्ति के द्वारा प्राप्त सत्ता से होता है, जिसमें व्यक्ति विजेता के निर्णय के प्रति समर्पित हो जाता है, किंतु दोनों ही स्थितियों में प्रमुखता का अधिकार असीम और अप्रश्नित होना चाहिए। प्रभुसत्ता स्वयं भी जनता के शुभ (कल्याण) को प्राप्त करने के प्राकृतिक नियम से बंधी होती है, जो कि उसके स्वयं के हित से अलग नहीं है, किंतु वह अपने कर्तव्यपालन के लिए मात्र ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होती है। उसके आदेश प्रजाजनों के बाहरी आचरण के औचित्य और अनौचित्य के अंतिम