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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/137 क्रम देने में वह प्लेटो और सिसरो के माध्यम से स्टोइकों से लिए गए प्रचलित चार मुख्य सद्गुणों से मतवैभिन्य रखता है। अरस्तूवी परम्परा के दस सद्गुण निम्न शीर्षकों के अंतर्गत आते हैं (1) विवेक (प्रज्ञा), जो कि आचरण के हेतु तर्कसंगत नियम प्रदान करता है, (2) संयम-जो पथभ्रष्ट करने वाली इच्छाओं को निरोध करता है, (3) सहनशीलता - जो कि कठिनाइयों और खतरों के भ्रांत (काल्पनिक) भय का नियमन करती है। यद्यपि मुख्य सद्गुणों के आत्मा के विभिन्न पक्षों से सम्बंध के प्रश्न को लेकर एक्वीनास का दृष्टिकोण प्लेटोवादी, अरस्तूवादी एवं स्टोइकवादी नहीं है। आत्मा के तीन पक्ष बौद्धिक, वासनात्मक और आवेशात्मक हैं, विवेक, संयम और सहनशीलता जिनके क्रमशः विशिष्ट सद्गुण है। इन तीनों पक्षों के साथ-साथ थामस एक्वीनास एक चौथे पक्ष संकल्प को मानते हैं, जिससे सम्बंधित सद्गुण न्यायशीलता है और जिसका क्षेत्र बाह्य कर्म है, तथापि इन आंशिक रूप से स्वाभाविक' और आंशिक रूप से अर्जित सद्गुणों के सम्बंध में दार्शनिकों' का ही अधिकार प्रमुख रहा है, यद्यपि इसके साथ ही इन सद्गुणों को क्रमबद्ध करने के पूर्व थामस श्रद्धा, प्रेम और आशावादिता के धार्मिक सद्गुणों की त्रयी को रख देते हैं, जो कि आधिभौतिक रूप से ईश्वर के द्वारा प्रदत्त है और जिनका अपरोक्ष साध्य ईश्वर ही है। श्रद्धा के द्वारा ईश्वर के ज्ञान का वह भाग प्राप्त होता है, जो कि प्राकृतिक बुद्धि या दर्शन की सीमा से परे है। स्वाभाविक रूप से हम ईश्वर के अस्तित्व को जान सकते है, किंतु उसकी त्रिधा में एकात्मकता (अद्वयता) को नहीं जान सकते हैं। यद्यपि दर्शन इसकी एवं दूसरे प्रकाशित सत्यों की रक्षा करने में सहायक है और यह आत्मकल्याण की उपलब्धि के हेतु आवश्यक है ईसाई धर्म के समग्र धर्म-सिद्धांत को व्यावहारिक बुद्धि के द्वारा अल्पतम रूप में ही जाना जा सकता है, उनका ज्ञान तो श्रद्धा के द्वारा सम्भव है। कोई ईसाई यदि किसी एक धर्म नियम को अस्वीकार करता है, तो वह सम्पूर्ण श्रद्धा या ईश्वर को खो देता है। श्रद्धा ईसाई नैतिकता का तात्त्विक आधार है, किंतु बिना प्रेम के ईसाईयत के सभी सद्गुण आकारहीन है। प्रेम ही सभी ईसाई सद्गुणों का मूलभूत आकार' है। आगिस्टन के बाद से ईसाई धर्म का प्रेम अपने प्रति परम शुभ की प्राणी की स्वाभाविक इच्छा से परे ईश्वर के प्रति प्रेम है, जो कि समस्त ईश्वरीय सृष्टि से प्राणियों के प्रति व्यापक हो जाता है और अंततोगत्वा जिसमें आत्मप्रेम भी समाहित हो जाता है, किंतु प्राणियों में, उनकी ईश्वर द्वारा सृष्टि होने के कारण, जो पवित्रता है उसके लिए ही उन्हें प्रेम करना चाहिए। उनमें जो कुछ भी अपवित्रता है, वह सब
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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