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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/129 नहीं लाते हैं। अंधयुग की समन्वयवादी नैतिकता एम्ब्रोस और आगस्टिन के प्रभाव के फलस्वरूप एवं चार मुख्य सद्गुणों की व्याख्या के आधार पर परवर्ती समन्वयवादी लेखकों के द्वारा एक सुव्यवस्थित नैतिक दर्शन की विवेचना के लिए सामान्यतया स्वीकृत प्रणाली प्रस्तुत की गई। अक्सर आगस्टिन के उदाहरण के पश्चात् श्रद्धा, आशा एवं प्रेम रूपी ईसाई अनुग्रह की त्रयी को भी अपना स्थान दिया गया है तथा ईशहा के द्वारा प्रतिपादित आत्मा के सात वरदानों का भी समावेश कर लिया गया जबकि महान नैतिक युद्ध के शुभ पक्ष में सात (या आठ) घातक पापों के नेतृत्व में पाप सेना की व्यूह रचना की गई है। जैसा कि हमनें पूर्व में कहा था, इन पापों की सूची का प्रतिरोपण ईसाई संतों के विशेष अनुभवों के द्वारा एक साधारण ईसाई की दृष्टि से नैतिकता सम्बंधी विचार के कारण हुआ, किंतु अंततोगत्वा ईसाई साधुसंस्था और सामान्य ईसाई के कर्तव्यों का विभाजन धर्माज्ञा के उच्च एवं निम्न रूप में स्पष्टतया रहा। जब मध्ययुगीन ईसाई धर्म संस्था में उसका प्रतिपादन किया गया तो, इसे पुरोहितवर्ग और जीवन के साधारण नियमों के बीच विभिन्न स्रोतों एवं अर्थों के वर्गीकरण के द्वारा अधिक जटिल बना दिया गया, किंतु धर्म-पुरोहितों एवं संन्यासियों के लिए ईसाई समाज की सामान्य धारणा के अनुसार लागू होने वाले नैतिक नियमों में क्रमशः निकट आने की प्रवृत्ति उसके पूर्व भी थी, जबकि 11 वीं शताब्दी में ईसाई धर्म पुरोहित के लिए ब्रह्मचर्य का नियम सर्वसामान्य रूप से अनिवार्य कर दिया गया, यद्यपि महापाप' और क्षम्य या लघु पापों का अंतर धर्म पुरोहित और जन-साधारण- दोनों के लिए समान रूप से लागू होता था। जैसा कि हमने देखा, इसमें ईश्वरीय अनुशासन की अर्थ एवं न्यायिकव्यवस्था का शास्त्रीय (तकनीकी) संदर्भ था, जो कि चर्च की एक पूर्ण व्यवस्थित आध्यात्मिक शक्ति के रूप में धीरे-धीरे विकसित हुआ और जिसने पाश्चात्य साम्राज्य के पतन से उत्पन्न अव्यवस्था के मध्य अपनी स्थापना की और एक धर्मतंत्र (धर्मशासन) के रूप में विकसित होकर आंशिक रूप से मध्य यूरोप पर शासन किया। महापाप वे हैं, जिनके कर्ता को शाश्वत नरक की आग से बचाने के लिए एक विशेष प्रकार की कठोर तपस्या करना होती है, जबकि लघु (क्षम्य) पापों के लिए प्रार्थना, दान और नियमित उपवास आदि के द्वारा क्षमा प्राप्त की जा सकती है। हम देखते हैं कि 7 वीं एवं 8 वीं शताब्दी में आयरलैण्ड ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी सभी में पाप को
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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