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नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/117 ऐसे संसार में उन सभी लोगों को, जो कि ईसाई धर्म की नाव में एकत्रित हुए हैं, कोई हिस्सा नहीं लेना है। उन्हें इसके प्रति यदि कोई दृष्टिकोण रखना ही है तो यह निष्कामविरक्ति का ही होगा। दूसरी ओर, सांसारिक जीवन की आस्था की उतनी विरक्ति व्यावहारिक रूप से कठिन थी, जितनी विरक्ति की पूर्णता को उच्चतम ईसाई-चेतना में मानी गई थी। इस कठिनाई के तीव्र बोध ने शरीर को भी एक बाधा या अवरोध माना, यही दृष्टिकोण हम कुछ सीमा तक प्लेटो में भी पाते हैं। पुनः, इसी दृष्टिकोण का विकास नव प्लेटोवाद, नव पाइथागोरसवाद
और प्राचीन विचारों से युक्त ग्रीक सम्प्रदायों में पाते हैं। शरीर को बाधा मानने की इस भावना के कारण ईसाई धर्म के प्रारम्भिक युग से ही उपवास आदि (देह-दण्डन) के मूल्य को महत्व दिया जाने लगा और जो बाद के संन्यासवाद में आत्मपीड़न के चरम बिंदु पर पहुंच गया। संसार विमुखता और इंद्रिय विमुखता की इन दोनों प्रवृत्तियों के कारण अविवाहित जीवन एवं ब्रह्मचर्य के विचार को प्रमुखता मिल गई, जो कि प्रारम्भिक ईसाई लेखकों में सामान्यतया पाई जाती है। ईसाई धर्मसंस्था और संसार के बीच इस विरोध के परिणामस्वरूप ईसाई सभ्यता की ग्रीकरोमन-जगत् की देशभक्ति, नागरिक कर्त्तव्यपालन तथा सामाजिक जीवन की अन्य गौरवमय उदात्त भावनाएं ईसाई धर्म के प्रभाव से या तो मानव जगत् के कल्याण के रूप में विकसित हुईं अथवा ईसाई धर्म संघ तक सीमित होकर रह गईं। तरतूलीयन का कथन है कि इस संसार को एक राष्ट्र-मण्डल के रूप में अंगीकृत करते हैं। इसी प्रकार ओरिजन कहते हैं कि ईश्वर के वचनों से निर्मित (सम्पूर्ण संसार ही) हमारा एक पितृ-देश है। सहनशीलता
ईसाई धर्म की सांसारिक विरक्तता की सामान्य धारणा से हम लौकिक संघर्षों के निराकरण की प्रवृत्ति का निगमन कर सकते हैं, चाहे वह संघर्ष किसी उचित कार्य के लिए भी क्यों न हो, इस प्रकार जिसमें कि क्रियाशीलता का तत्त्व प्रमुख था उस प्राचीन गैर ईसाई सद्गुणों साहस आदि का स्थान एक निष्क्रिय सहनशीलता के सद्गुण ने ले लिया। यहां हम ईसा के हिंसा के प्रति हिंसक प्रतिरोध के निषेध के आदेश चरित्र एवं आचरण के द्वारा इस आदेश को हृदयंगम करने के प्रयत्न में स्वाभाविक विद्वेष को भी जीत लेने वाले प्रेम का प्रभाव पाते हैं। इस सहनशीलता के अतिवादी परिणाम को तरतूलीयन के इस कथन में देखा जा सकता है कि कोई भी