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________________ नीतिशास्त्र के इतिहास की रूपरेखा/115 प्रेम किंतु, श्रद्धा (आस्था) ईसाई धर्म में सदाचरण का आवश्यक प्रेरक सिद्धांत होने की अपेक्षा उसका एक अवियोज्यतत्त्व या उसका पूर्ववर्ती तथ्य है। ईसाई धर्म में इस प्रेरक की पूर्ति दूसरे केंद्रीय प्रत्यय प्रेम के द्वारा की गई है। प्रेम के प्रत्यय पर ईसाई कर्तव्य का सम्पूर्ण नैतिक मूल्य और आदेश का परिपालन निर्भर है। प्रथम तो वह ईश्वर के प्रति प्रेम है, जो अपने पूर्ण विकसित रूप में ईसाई धर्म के प्रति आस्था से उत्पन्न होता है और दूसरे, दैवीय प्रेम के विषय के रूप में वह समग्र मनुष्यों के प्रति प्रेम (मानवीय प्रेम) है। ईश्वर के अवतार के द्वारा यह प्रेम को उदात्त बनाता है और उसे मानव जाति का भागीदार बनता है। चाहे वह उत्पन्न मानव-प्रेम (लोकोपकार की भावना) मानव-जाति के प्रति स्वाभाविक रागात्मकता से युक्त हो या उससे घनीभूत हुआ हो अथवा उसमें समाहित हो या उसका रूपांतरण कर रहा हो, आत्मा के उस लक्षण को अभिव्यक्त करता है, जिसमें ईसाई धर्म के अनुसार सामाजिक कर्तव्यों को किया जाना चाहिए। प्रेमपूर्ण भक्ति चित्त की एक आधारभूत अवस्था है और जिसे ईसाई धर्म के अनुसार जीवन पर्यन्त बनाए रखना होता है। पवित्रता पुनः, नियम के विपरीत (बुरे) कर्मों और उन इच्छाओं, जो कि उन कर्मों के लिए प्रेरित करती हैं, से बचने के लिए हमें एक दूसरे प्रत्यय को देखना होगा, जिसमें ईसाई नैतिकता की अंतर्मुखता स्वतः ही अभिव्यक्त होती है। यद्यपि यह अंतर्मुखता नैतिकता से अधिक भिन्न नहीं है, तो भी ईसाई नैतिकता की ग्रीक-रोमन दर्शन से तुलना करते समय हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह गहन विभीषिका, जिसके साथ ईसाई धर्म है। पीड़ा एवं प्रतिरोधी देवता (शैतान) के प्रत्यय जुड़े हुए हैं। यह बताता है कि सभी दुष्कर्म एक ऐसी भावना से युक्त होते हैं, जिसे हम धर्मानुष्ठान की नीतिकृत अरुचि कह सकते हैं। एक ऐसी अरुचि, जो कि अशुद्धि एवं बुराई की दिशा में ले जाती है। जब यहूदी धर्म और दूसरे प्राचीन धर्मों में भौतिक (शारीरिक) अशुद्धि के प्रति घृणा को धार्मिक भावना के रूप में विकसित किया गया और उसे धर्मानुष्ठान की पवित्रता और स्वास्थ्य सम्बंधी संयम की एक संयुक्त पद्धति का आधार बनाया गया, तब यह पवित्रता का प्रत्यय यहूदी धर्म में नैतिक घटक के रूप में प्रमुख बन गया और धर्मानुष्ठान के
SR No.032622
Book TitleNitishastra Ke Iitihas Ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHenri Sizvik
PublisherPrachya Vidyapeeth
Publication Year2017
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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