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भारत में नारी - स्वातन्त्र्य एवं बौद्ध धर्म में स्त्रीप्रव्रज्या
रामनक्षत्र प्रसाद, नालंदा
मानवसभ्यता के इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो हमें ज्ञात होता है कि प्राग्बुद्धकालीन भारतीय समाज में स्त्री के तीन रूप मिलते हैं— कन्या, पत्नी और माँ। परिवार में पत्नी एवं माँ के रूप में स्त्री को बहुत प्रतिष्ठा थी। सैन्धव सभ्यता का समाज समुन्नत एवं समृद्ध नागरिक समाज था । वहाँ नारियों की पूजा होती थी । मातृप्रधान सामाजिक व्यवस्था थी, तभी तो मनु के द्वारा तत्कालीन समाज का चित्रण इन शब्दों में किया गया है—
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ॥
कालक्रम से इस भावना का ह्रास हुआ और स्मृतिकाल के आते-आते नारी के महत्व का अवमूल्यन होता चला गया। काल में स्त्री को पुरुष के अधीन बनाने का उपक्रम आरम्भ हुआ तथा यहाँ तक कहा गया कि नारी को जीवनपर्यन्त एक अभिरक्षण अपेक्षित है। इसीलिये धर्मशास्त्रों में व्यवस्था दी गयी कि पिता, भर्ता और पुत्र स्त्रियों को प्रत्येक अवस्था में संरक्षण प्रदान करेंगे।
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्राः न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥
इन्हीं रक्ष्य-रक्षक सम्बन्धों के चलते स्त्री पुरुष के आश्रित होती चली गयी और अपने अधिकारों एवं स्वातन्त्र्य की चिन्ता करना भूल गयी, किन्तु समय के साथ परिवर्तन आया और जब नारी चेतना जागृत हुई तब उसे अपने को सामाजिक, धार्मिक, विधिक, शेक्षणिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक हर क्षेत्र में उपेक्षित होने का भान हुआ और उसको यह पीड़ा संवेदित करने लगी कि उसे पुरुष के अधीन ही परतन्त्र, पराधीन एवं पराश्रयी जीवन क्यों जीना पड़ता है ? यहीं से नारी के अधिकार एवं उसके स्वातन्त्र्य को लेकर चर्चा का आरम्भ हुआ