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________________ के अक्षर ही नहीं आते, हमारे पास ऐसे कितनेक बालक आते हैं । यह देखकर आश्चर्य होता हैं : हमारे ही देशका बालक हमारी . ही भाषा नहीं जानता ! बालपनसे ही आप मातृभाषासे अलग हो जाओ तो आपमें आर्य-संस्कृति की धारा कैसी उतरेगी ? जो बाषा बचपनसे सीखो उसी भाषाकी संस्कृति उतरेगी । बालक तो ठीक, आज तो साधु-साध्वीजी भी संस्कृतसे दूर हो गये हैं। व्याख्यान अच्छे दे दिये ! लोगोंको प्रभावित कर दिया, बस... काम हो गया । लोकरंजनमें पड़ जायेंगे तो आगमोंको कौन पढेगा ? जैन साधुओं को इतनी सामग्री मिली हैं कि अन्य कहीं जानेकी जरुरत ही नहीं पड़ती । (४) ध्यान माता : त्रिपदी । तीनों माताएं हमको अंतमें ध्यान माताकी गोदमें रख देती हैं । किंतु प्रारंभ तो क्रमशः ही होता हैं । सीधा ध्यान नहीं आता । * भगवान सबका हित करते हैं, किंतु सबके नाथ कैसे नहीं बनते ? भगवान तो नाथ बनने के लिए तैयार हैं, किंतु हम उनको नाथ के रूपमें स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं । बीजाधानयुक्त जीव ही नाथ के रूपमें स्वीकारने के लिए तैयार होते हैं । __ भारत सरकार युद्ध मैदानमें उतरे हुए वफादार सैनिकोंको ही शस्त्र देकर मदद करती हैं। बेवफा-शत्रु पक्षमें मिले हुए सैनिकोंको शस्त्र दे तो क्या हालत हो ? भारत सरकारसे ही भारतका नाश हो जाये । इसी तरह भगवान बीजाधानयुक्त भव्यात्मा के ही नाथ बनते हैं, दूसरे के नहीं । बीजाधान से प्रारंभ कर अंतमें मोक्ष तक भगवान योग-क्षेम करते रहते हैं। उसके बाद तो आप स्वयं नाथ बनकर दूसरे का योग-क्षेम करते रहोगे । ___ * व्यवहार राशि या अव्यवहारराशि - सभी जीवों का हित भगवान करते हैं । हम भले विचारते न हों, परंतु हमारा हित कोई करते हैं, ऐसा पता चलता हैं ? रेलमें बैठे हो तब (६८Boooooooooooooooos कहे कलापूर्णसूरि - ४)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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