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ही सब कुछ हैं । काल बगैरह सभी भगवानके ही दास हैं, ऐसा मानकर पुरुषार्थ करना हैं ।
* व्यापारीओं के यहां दो विभाग होते हैं : खाता और रोकड़ । खाता नवकार हैं । रोकड़ शेष द्वादशांगी । खातेमें मात्र टीप ही होती हैं ।
अब मैं पूछता हूं : रोकड़ खो जाय तो नुकसान या खाता खो जाये तो ज्यादा नुकसान ?
इसी तरह नवकार खो जाये तो सब कुछ खो जाता हैं ।
एक नवकार के आधार पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराजने अनेक अगम्य पदार्थों की शोध की और कहा : नवकार से निर्मल बनी हुई प्रज्ञा आपको सब कुछ ढूंढ देगी ।
गणधरों को तो मात्र तीन ही पद भगवानने दिये थे । वे मातृका हैं । यह खाता हैं । उसके उपर बनाई हुई द्वादशांगी वह रोकड़ हैं ।
* चार माता : (१)वर्ण माता : ज्ञानमाता । अ से ह तक के अक्षर ।
पुराने जमानेमें माता की तरह अक्षरों को पूजते थे । गणधरोंने स्वयंने उसको नमन किया हैं । 'नमो बंभीए लिविए ।'
अक्षर द्रव्यश्रुत होने पर भी भावश्रुतका कारण हैं । (२) नमस्कृति माता (नवकार) : पुण्यकी माता । विशिष्ट पुण्य पैदा करने से जीवका विकास होता ही रहता
(३) प्रवचन माता : धर्ममाता । पुण्य के बाद धर्मका सर्जन होना चाहिए ।
ये सभी धावमाताएं हैं । ये स्वयं का कार्य करके आगे की माताकी गोदमें हमको भेज देती हैं।
__ पहले वर्णमाता आती हैं । वर्णमाता आपको नवकार माताकी गोदमें, नवकार माता आपको प्रवचन माताकी गोदमें रखती हैं ।
__आज तो आश्चर्य होता हैं । आपके बालक वर्णमातासे वंचित रह जाते हैं । उसको A, B, C, D आती हैं, किंतु अ से ह तक कहे कलापूर्णसूरि - ४ wwwwwwwwwwwwwwwwwww ६७)