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________________ ज्यादा अच्छा नहीं लगता । भले वह चक्रवर्ती हो या शहनशाह, परंतु मन संसारमें नहीं लगता । विषयाभिलाषाकी निवृत्ति करानेवाली क्षयोपशमकी वृद्धि हैं । अपुनर्बंधक के बिना यह नहीं हो सकता । अपुनर्बंधक अवस्थामें हमने प्रवेश किया तो भगवानकी तरफसे योग-क्षेम होना शुरु हो ही गया, जान लो । अन्यदर्शनी जो कहते हैं : हम परमकी झलक, परमका आनंद अनुभव कर रहे हैं, वे सच्चे नहीं हैं, ऐसा नहीं हैं । अपुनर्बंधकदशामें भी ऐसा आनंद मिल सकता हैं, ऐसा हरिभद्रसूरिजी कहते हैं । ( १२ ) लोगहिआणं । लोक याने पंचास्तिकाय । पंचास्तिकायमें अलोक भी आ गया । क्योंकि आकाशास्तिकाय अलोकमें भी हैं । अलोक इतना बड़ा है, उसे लोकमें कैसे समा सकते हैं ? इस अर्थमें समा सकते हैं । केवलज्ञानमें भी समा सकते हैं । भगवान पंचास्तिकायमय लोक के लिए हितकारी हैं । यथावस्थित दर्शनपूर्वक, सम्यग् - प्ररूपणा करके भगवान हित करते हैं । ऐसा हित करते हैं कि जिसमें भाविमें कोई बाधा न पहुंचे । भगवान सर्व पदार्थोंको यथार्थ देखते हैं । उसके ( दर्शनके) अनुरूप भगवान व्यवहार करते हैं । भगवान ऐसी ही प्ररूपणा करते हैं जिससे भविष्यमें बाधा न पहुंचे । सत्य हो उतना सब भगवान बोलते नहीं हैं, भगवान बोलते हैं वह सत्य होता हैं, किंतु सत्य हो वह बोलते ही हैं, ऐसा नहीं हैं । डोसीमांको डोसी, अंधेको अंधा, कानेको काना, चोरको चोर, सच होने पर भी नहीं कहना चाहिए । न सत्यमपि भाषेत परपीडाकरं वचः 1 कौशिक नामके बाबाजीको प्रतिज्ञा थी : सत्य ही बोलना । वह जंगलमें जा रहा था । उस समय उसने दौड़ते चौरों को झाड़ीमें छिप जाते देखा । पीछे आते सैनिकोंने पूछा तो उसने कह दिया : चौर उस झाड़ीमें छिपे हैं । ६२ ०० १८४ कहे कलापूर्णसूरि
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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