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समुद्देश : 'थिरपरिचिअं करिज्जाहि' स्व-नामकी तरह उस सूत्र-अर्थ को स्थिर-परिचित करो ।
__ स्वयंके नामको कभी भूलते हैं ? आधी रात को भी नहीं भूलते हैं न ? प्रीतियोग पराकाष्ठा पर पहुंचता हैं तब भगवान को कभी नहीं भूलते । स्वयं का नाम भगवानमें ही विलीन करने का मन हो जाता हैं ।
अनुज्ञा : सम्मं धारिज्जाहि, अन्नेसिं पवज्जाहि, गुरुगुणेहिं वुड्डिज्जाहि ।
उसका अब सम्यग् धारण करना । दूसरों को देना और महान गुणों से वृद्धि पाना ।
जैसे आपने पाया हैं, उस प्रकार अन्यमें भी विनियोग करना तो ही इसकी परंपरा चलेगी ।
आज यह बात इसीलिए याद आयी कि आचारांग के जोगवालों की अंतिम नंदी आ रही हैं । वे सब हितशिक्षा मांग रहे हैं । उन सबको इतना ही कहना है कि जिन सूत्रों के योगोद्वहन किये हैं उन सूत्रों को सूत्र-अर्थ-तदुभयसे आत्मसात् करना । जीवन उस प्रकारका बनाना ।
हमारे प्राण-त्राण-शरीर भगवान ही हैं । भगवान भले दूर हो, लेकिन आगमसे नजदीक हैं । आगमके एकेक अक्षरमें भगवान हैं । उसके पारायणसे पापकर्मोका क्षय और मंगलकी वृद्धि होगी । आखिर हमको यही काम करना हैं न ?
सर्व आगमों का सार नवकारमें हैं। इस नवकारको कभी मत भूलना । नवकार कहता हैं : आप अगर मेरा स्मरण करते हो तो सर्व पापों का नाश करने की जवाबदारी मेरी हैं। सभी आगम नवकार को केन्द्रमें रखकर चारों तरफ प्रदक्षिणा दे रहे हैं । चौदहपूर्वी भी अंत समयमें नवकार याद करते हैं । ऐसा महामूल्यवान नवकार मिला हैं उसे भाग्यकी पराकाष्ठा समझना ।
संपादन-संशोधनमें इतने व्यस्त होने पर भी पू. जंबू वि.म. २० पक्की माला गिनने के बाद ही पानी वापरते हैं । यह प्रतिज्ञा देनेवाले पू.पं. भद्रंकर वि.म. थे । पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराजने पू. जंबू वि.म. जब अकेले थे (पिता म. स्वर्गवासी हो गये थे ।) (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 5000000000000000000000 ४९)