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धर्मबीज अंदर हैं उसकी प्रतीति क्या ? जिनवाणी के पानीसे अंकुरे आदि फूटते गये तो समझना : अंदर बीजकी बुआई हो चूकी हैं ।
_ 'योगावंचक प्राणीआ, फल लेतां रीझे
पुष्करावर्तना मेघमां, मगशेल न भींजे ।' बहुत अजैन ट्रकोंवाले चालक हमको देखकर खुश होते हैं । ट्रक खड़ी रखकर कहते हैं : इसमें बैठ जाओ । हम रुपये नहीं लेंगे । आपको इष्ट स्थान पर पहुंचा देंगे ।
उनको जब कहते हैं : 'हम वाहनमें नहीं बैठते । तब वे आश्चर्य के भावसे झुक पड़ते हैं ।
यह अहोभाव वही बीजाधान ।
जैनोंको ही बीजाधान होता हैं, ऐसा नहीं हैं । अजैनों को भी होता हैं । आज तो अजैनों को ही होता हो ऐसा लगता हैं । जैनों को तो दुगंछा न हो तो भी बड़ी बात गिनी जाएगी ।
योग याने मन-वचन आदि नहीं, किंतु 'अप्राप्त-लाभलक्षणः योगः' जो न मिला हो उसकी प्राप्ति होना ही योग हैं । मान लो कि किसी गुण (क्षमा आदि) की आपमें त्रुटी हैं, भगवानके पास आप मांगते हो । भगवान वह देते हैं, वह योग कहा जाता हैं । देने के बाद उसकी सुरक्षा कर देते हैं वह 'क्षेम' कहा जाता
आपने निश्चय किया : मैं क्रोध नहीं करूंगा । क्षमा रखूगा । परंतु उसके बाद ऐसे प्रसंग आते हैं कि क्रोध आना सहज बन जाता हैं । फिर भी हृदयमें प्रभुका स्मरण हो तो आप क्रोध के आक्रमण से बच सकते हो । तो यह योग-क्षेम कहा जाता हैं। परलोककी अपेक्षासे भगवान आत्माको नरकादि दुर्गतिसे भी बचाकर क्षेम करते रहते हैं ।
ऐसे योग-क्षेम करनेवाले नाथ मिलने पर भी उनको हृदयसे न स्वीकारें तो हमारे दुर्भाग्यकी पराकाष्ठा कही जाएगी ।
* योगोद्वहनमें हम बोलते हैं : उद्देशः सुत्तेणं अत्येणं तदुभयेणं जोगं करिज्जाहि ।
सूत्र-अर्थ और तदुभयसे योग करो । [४८00mmoooooooooomnoon कहे कलापूर्णसूरि - ४)