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________________ तब स्वयं के पास दीक्षा लेने आनेवाले एक भाई को पू. जंबू वि.म. के पास भेजा था । 1 पू. अभयसागरजी म. भी नवकारके अनन्य उपासक थे । अनेकों को नवकार के उपासक बनाये हैं । नवकार के प्रभावसे आपको नये-नये अर्थोंकी स्फुरणा होगी - यह स्व- - अनुभवसे समझ सकेंगे । भगवान को जाकर कहिए : भगवन् ! मैं आपका हूं । आप मेरे हो । मेरे नाथ हो । मेरा योग-क्षेम करने की जवाबदारी आपकी हैं । मुझ में खामी हो तो बताना । 1 आप आज्ञा का पालन करो तो भगवान योग-क्षेम करते ही हैं । H H 'कहे कलापूर्णसूरि' तथा 'कह्युं कलापूर्णसूरिए' इन दोनों पुस्तकों की ३-३ नकल मिली हैं । खूब खूब आनंद हुआ हैं । दृष्टिपात किया । अत्यंत आनंदानुभूतिदायक आलेखन हैं । स्वच्छ + सुगम हैं । कृति अति प्रशंसनीय हैं । और अध्यापन कार्यमें अत्युपयोगी हैं । पुस्तक प्राप्त होते बहुत ही आनंद हुआ हैं । दोनों पुस्तकों की १ - १ कोपी मेरे अग्रज पंडित श्री चंद्रकांतभाई और अनुज पंडितश्री राजुभाई को भेज दूंगा । अरविंदभाई पंडित राधनपुर ५० WW - १८७ कहे कलापूर्णसूरि ४
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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