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________________ के दर्शन होते ही प्रभु-करुणा के धोध से उनके दर्पका नाश हुआ । भगवानने दर्पका नाश कर गणधर - पद दिया । आजके दिन यही विनंती हैं । मेरे जीवनमें जो दर्प हैं, शरीर, नाम या रूप का जो दर्प हैं, उसका आप नाश करो । उसके बाद ही सच्चा पद मिलेगा । आज तो मात्र आरोप किया हैं । वास्तवमें हमें मिला नहीं हैं, मात्र आरोप हैं । उदार लक्षपति सेठ अपने गरीब दास को लाख रूपये की लोन दे और वह गरीब दास अगर खुद को लक्षपति माने तो हास्यास्पद हैं । आरोप किया हैं, वैसे गुणों को हम प्राप्त कर सकें, लोन को व्याजसहित वापस दे सकें, ऐसे गुण आये यही शुभेच्छा हैं । पूज्य गुरुमैया पूज्य आचार्य भगवंत, पूज्य कलाप्रभसूरिजी, पूज्य पंन्यास कल्पतरुविजयजी महाराज, पूज्य पंन्यास कीर्तिचंद्रविजयजी महाराज आदि सर्व गुरु भाईओंने मेरे जीवनमें जो कमी थी उसकी पूर्ति की हैं । संसारमें माता-पिता इत्यादि के उपकारों को याद करता हूं । उनके ही संस्कारों के प्रभावसे ऐसा समुदाय और ऐसा शासन मिला हैं । इन सबका ऋण अदा करने के लिए शक्तिमान बनूं, यही अभ्यर्थना हैं । नूतन गणिश्री विमलप्रभविजयजी : जिसका वर्णन श्री सीमंधरस्वामीने किया ऐसे इस अनंत सिद्धों के निवासरूप सिद्धक्षेत्रमें, पूज्य गुरुदेव जैसों की निश्रामें ऐतिहासिक चातुर्मास प्रसंग पर १४ - १४ दीक्षा प्रसंग और ३-३ पदवी प्रसंग का आयोजन हुआ हैं । हर तीर्थंकर खुद के शिष्यों को गणधर - पद पर स्थापित करते ही हैं । सुधर्मास्वामीसे दुप्पसहसूरि तक यह परंपरा चालु रहेगी । हमारा सद्भाग्य हैं : भगवान महावीर की ७७वी पाट पर हमें ऐसे गुरुदेव मिले हैं । इस पद के लिए दावा या अधिकार नहीं हो सकता । गुरु को योग्य लगे उसे योग्य पद दे सकते हैं । राव बहादुर, जे. पी. इत्यादि पदवियां देकर अंग्रेजोंने लोगों ३३३ ( कहे कलापूर्णसूरि ४wwwwwwwwwwwww
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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