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को ठगने की कार्यवाही शुरु की थी । क्योंकि बडे राजाओं को हाथमें लेने थे न ?
ऐसी पदवीयां यहाँ नहीं हैं । ये तो लोकोत्तर पदवीयां हैं। मुझे यह पदवी मिल रही हैं, लेकिन मैं कोई इसके लिए लायक नहीं हूं, लेकिन मैं लायक बनूं - ऐसी अपेक्षा रखता हूं ।
__ जड़ पत्थरमें भी आरोपण करने से देवत्व आता हो तो चेतनमें योग्यता क्यों नहीं प्रकट सके ?
पूज्यश्रीमें जो निःस्पृहता देखी वह कहीं देखने नहीं मिली हैं। प्रतिष्ठा, अंजनशलाका इत्यादिमें कभी शिलालेख के लिए पूज्यश्रीने इच्छा रखी हो - ऐसा जाना नहीं हैं । मद्रासमें दी जाती 'फलोदीरत्न' पदवी को भी पूज्यश्रीने ठुकराइ थी ।
नाम और रूपसे स्वयं पर होने पर भी इनके नाम और रूप का कितना प्रभाव हैं ।
ऊटीसे मैसूर मैं आ रहा था । रास्तेमें तीन जंगली हाथी बैठे थे । वह जंगल बंडीपुर का था । मार्गमें पूज्यश्री की प्रतिकृति के दर्शन मात्र से विघ्न मिट गया । हाथी रवाना हो गये ।
राम के नाम पत्थर तैरते हैं... पत्थर जैसे हम 'कलापूर्ण' के नाम से तैर रहे हैं । महादेव के कारण बैल पूजा जाता हैं उसी तरह हम पूजे जा रहे हैं ।
इनके नामकी पुस्तकें बहुत-बहुत बिकती हैं । वह पुस्तक फिर दक्षिणकी सफरें या 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक हो । 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक की तो दो-दो आवृत्तियां खतम हो गई, अभी और मांग चालू हैं... उसमें पूज्यश्री का ही प्रभाव हैं ।
__ पूज्यश्रीने कभी कोई अपेक्षा नहीं रखी हैं। किसी भक्त के पास भी धर्म के अलावा दूसरी कोई बात करते नहीं हैं ।
इनकी अप्रमत्तता, उपयोगपूर्वक की इरियावहियं इत्यादि क्रियाएं, रजोहरण से प्रमार्जन करना, निरुत्सुकता (किसी प्रोग्राममें देखने जाये ऐसी उत्सुकता नहीं) इत्यादि अनेक नेत्र-दीपक गुण हैं ।
. इसके साथ माता-पिता के उपकारों को भी कैसे भूल सकता हूं ? संसारी-पिताश्रीने पढाई के लिए मद्रास भेजा । दूसरे वर्ष संसारी बहन के वहाँ रहना हुआ, और पाठशाला के प्रभाव से धर्म(३३४ wwwwwmoommmmmmmmmmmm कहे कलापूर्णसूरि - ४)