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________________ पूज्य कलाप्रभसूरिजी : विश्वमें अजोड़ जैनशासन हमें जन्म से मिला हैं । अगर यह शासन नहीं मिला होता तो ऐसे प्रसंग हम देख नहीं सकते थे, मना नहीं सकते थे । पूर्व जन्ममें जानते या अनजानते हमें शासन को देखकर प्रेम हुआ ही होगा । इसलिए ही यह शासन मिला हैं । जिनेश्वरोंने फरमाइ हुई प्रव्रज्या विश्व का महान आश्चर्य हैं । छोटी-छोटी उम्रमें सर्व त्याग के मार्ग पर जानेवाले को देखकर हृदय झुक जाता हैं । इसका अनुमोदन हृदयसे हो जाये तो भावि कालमें अवश्य सर्व त्याग का मार्ग खुलेगा । दूसरा प्रसंग हैं, पद-प्रसंग का । दुनिया से अलग ही प्रकार का लोकोत्तर प्रसंग हैं । आप पू. गुरुदेव के पीछे रहे हुए चित्रमें देख सकते हो : स्वयं भगवान शिष्यों को गणधर पद दे रहे हैं । इसका मतलब यह हैं कि स्वयं की शक्तिओं की स्थापना भगवान उनमें कर रहे हैं । जैनशासन का साधु इच्छा-रहित होता हैं । परम-पद के अलावा उसे दूसरे किसी पद की इच्छा नहीं होती । पू. गुरुदेव ही खुद योग्य शिष्य को योग्य पद दे रहे हैं । विनीत शिष्य गुरुआज्ञा को सत्कार करके पद स्वीकार करता हैं । तीन मुनिओंमें एक को पंन्यास पद और अन्य को गणिपदप्रदान यहाँ हो रहा हैं। तीनों मुनिओं की इच्छा नहीं थी कि हमें पद मिले । आपके यहाँ अमुक एज्युकेशन के बाद डीग्री मिलती हैं । समस्त आगम ग्रंथों की अनुज्ञा का अर्थ हैं : पंन्यास पदवी । भगवती की अनुज्ञा का अर्थ हैं : गणि पदवी । इस प्रसंग पर संपत्ति, शक्ति और समय का योगदान अनेक व्यक्तिओंने दिया हैं, वे सब धन्यवाद के पात्र हैं । पूज्य धुरंधरविजयजी : अंतिम चार महिने से एक-सा आनंद का माहोल जमा हुआ हैं, वह विहार की पूर्व संध्या तक जमा हुआ ही रहेगा । यह भूमि (सात चोवीसी धर्मशाला) भाग्यशाली हैं कि यहाँ बिना आमंत्रण सर्व साधु भगवंत पधारे हैं । ऐसा लाभ तो किसी 3R8 ।
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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