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________________ इसे देखकर पू. प्रेमसूरिजी के कान्तिविजयजी स्तब्ध बन गये थे : साधुओं को चातुर्मास भेजने की व्यवस्था जुटाने के लिए हम हेरान-हेरान हो जाते हैं। यहां पर कितना सहज आज्ञापालन ? वह भी साध्वीओं (स्त्रीओं) में ? प्रभु और गुरु की आज्ञा निश्चल मनसे पालोगे तो समझ लेना : मोक्ष आपकी मूठीमें हैं । संसार आपके लिए सागर नहीं रहेगा, डबरा बन जायेगा । इसे तैरना नहीं पड़ेगा, मात्र एक ही छलाँग लगाओगे और सामने पार ! अपार्थिव आस्वाद भव्यात्मन् ! भोजन के षड्रस पौद्गलिक पदार्थ जीह्वा के स्पर्श से सुखाभास उत्पन्न करते हैं । कंठ के नीचे चले जाने के बाद उसका आस्वाद चला जाता हैं, जबकि आत्मामें रहा हुआ शांतरस सर्वदा सुख देनेवाला हैं । उसमें पौद्गलिक पदार्थों की जरुरत नहीं होती । वह आत्मामें छुपा हुआ हैं । आत्मा द्वारा ही ॐ प्रकट होता हैं । (३२४ 00mmonsoooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - 8)
SR No.032620
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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